जब भी पैदल चलती हूँ, ये नज़र पेड़ों, लोगों, पत्थरों, इमारतों, जानवर, पंछी, चबूतरों, दीवारों में उलझने लगती है। जो मज़ा धीमी गति से टहलते हुए, आसपास के नज़ारों को महसूस करने में है, वो किसी तेज़ भागती बस, ट्रेन या गाड़ी में बैठे हुए कहाँ। हालाँकि थोड़ी सी आलसी हूँ। सुबह की सैर का कभी सपना भी नहीं देख पाई, सचमुच में करने का तो सवाल ही छोड़िए।
पर आजकल एक नियम बनाया है, रोज़ाना शाम को दफ्तर से घर पैदल आने का। पन्द्रह मिनट का सफर, एक बड़ा सा पार्क, दो पैरों की गाड़ी और मेरी तन्हाई, दोस्त बन चले हैं। जाने क्या क्या बातें करते हैं। उस सरसराती हवा से, जो ऊंची दीवारों पर लगे बाड़ों की सीमा नहीं मानती; उन झुकी डालियों से, जो तने से दूर होते हुए भी अपनी जड़ों से रिश्ता भुलाया नहीं करतीं; उन बदरंग बेंचों से, जो रंग बिरंगे कपड़े पहने बच्चे बूढ़े जवानों से ही खुद को सजा लेतीं हैं; उन ऊबड़ खाबड़ बेतरतीबी से बिखरे कंकड़ों से, जो ठोकरों को सर पर धरे बैठे हैं; उन मस्त मैनाओं से, जो सर झुका, झाड़ियों में जाने क्या बीनती रहती हैं, पर अपने साथी को नज़र से ओझल नहीं होने देतीं; उस मिट्टी से सने फुव्वारे से, जो अब तक पानी के कनेक्शन का इंतज़ार कर रहा है और उन खिलखिलाते बच्चों से, जो गोल गोल भागते हुए ज़िंदगी का अहम पाठ सीख जाते हैं, कि ज़रूरी नहीं, मेहनत हमेशा रंग ले ही आए, ख़्वाब परवान चढ़ ही जाएं, मन्ज़िल हासिल हो ही जाए। इस तेज़ रफ़्तार में कुछ ज़रूरी है तो सिर्फ खुलकर जीना, हर पल !
#fursatkepal
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