तेज़ी से उठता मिट्टी का ग़ुबार, कई कुत्तों के एक साथ भौंकने की आवाज़, मिमियाती बकरियां, पत्थर फेंकते बच्चे और तमाशा देखते बूढ़े और जवान। आज ये दृश्य मेरी नज़रों के सामने पड़ोस की झोंपड़ पट्टी से सटी छोटी सी पार्क में घटित हुआ।
हुआ कुछ यूँ कि दफ्तर से घर आ रही थी। शाम घिरने वाली थी। अमूमन जब तक लौटती हूँ, सूरज अपना
करारापन खो चुका होता है। सर्द हवाओं की दस्तक, उन बेफ़िक्र लोगों को, जो दोपहर में धूप का मज़ा ले चुके, अपने घरों की तरफ पलायन करने को विवश कर देती है। इसलिए अक्सर ये जगह खामोश और सुनसान ही नज़र आई मुझे।
पर आज नज़ारा बदला हुआ था। कुत्तों की गरज, बकरियों की कातर आवाज़ें और इंसानों की चहक, साफ बता रहे थे कि कुछ अलग हुआ है, सामान्य से हटकर, एकदम गज़ब सा।
अब जिज्ञासा तो इंसानी फितरत ही ठहरी, सो कदम खुद ब खुद थम गए मेरे। हाँ, अप्रत्याशित बातों से कुछ दूरी बनाए रखना, शहरी माहौल और परिस्थितियां सिखा चुकी हैं। सो, सीधा मौका-ए-वारदात में न घुसकर, मैं उस छोटी सी दीवार जो मुझे और पार्क को अलग करती थी, से झांक कर देखने की कोशिश करने लगी।
कुछ पल तक कुछ समझ न आया। तीन बकरियां सरपट भाग रहीं थीं, पर जगह कम थी, सो दूरी कम गति ज़्यादा प्रतीत हो रही थी, यूँ कह लीजिये कि कहीं जा नहीं पा रहीं थीं, बस एक गोलदारे में चक्कर काटती अपने बित्ते भर कलेजे को सम्भालने की असफल कोशिश कर रहीं थीं। उनके थोड़ा आगे थे, चार कुत्ते और पांच बच्चे। सब अपने अपने हथियारों से लैस, माने दांत, हाथ और पत्थर। अजब सा शोरोगुल था। आखिर ये सब हमला किस पर बोले बैठे थे, कुछ समझ नहीं आ रहा था।
अचानक एक बूढ़ा बच्चों पर चिल्लाया, पागल है रे वो कुत्ता, पास न जाइयो। और मेरी नज़र सीधे उसकी विपरीत दिशा में, दुम टांगों के बीच दबाए, उंकडूँ बैठे, दांत निपोरते, एक मरियल से कुत्ते पर जा अटकी। उसकी आँखों में मौत का खौफ, दांतों में आखिरी दम तक लड़ने की सनक साफ़ दिख रही थी। अपनी और दूसरी जाति के खूंखार इरादे बखूबी भांपे बैठा वो कुत्ता, मुझे दया का पात्र ही नज़र आया। पागलपन तो शायद विरोधी खेमे में ही ज़्यादा था।
मैं इस पसोपेश में थी कि अब क्या करूं, कुछ कहूँ भी या तमाशबीन सी चुपचाप खड़ी रहूँ। इंसानी दिमाग भी भगवान ने बहुत फुरसत में बनाया है। पल भर में हज़ारों ख्याल बुनता ये करिश्माई पुर्ज़ा, अक्सर ऐसे मौकों पर आश्चर्यजनक ढंग से खामोश हो जाता है।
खुद में गुम हुए जाने मुझे सेकंड बीते या मिनट, तन्द्रा तब टूटी जब बच्चे ताली बजाने लगे। मालूम चला, मरियल कुत्ता मौका पा भाग चुका था। बच्चों ने अपने इलाके में उसे घुसने से सफलता पूर्वक रोक लिया था। उनकी जीत हुई थी, जश्न जारी था। और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सी खड़ी सोच रही थी, अच्छा हुआ, जानवर अब भी ऐसे मौकों पर दिमाग नहीं, अपनी गट फीलिंग पर ही ज़्यादा निर्भर करते हैं, वरना आज उसकी मौत पक्की थी !
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