Fiction / Fursat ke Pal

फुर्सत के पल : 5

शर्मीला सूरज गुलाबी चमक लिए जागा है आज। चन्दा ने चादर तानकर सोने का फैसला लिया है। आज उसकी धवल चांदनी नहीं, सूरज की लालिमा ही सबके मन में छाई है। बादलोँ ने सुबह सवेरे हल्का सा गरज बरस कर शुभ मंगल सर्वदा की हुंकार लगा दी है। सेमल की पत्तियों ने झड़ने की और गुलदाऊदी की नन्ही कलियों ने खिलने की पूरी तैयारी कर ली है। पार्क में माली सुबह से ही क्यारियों की गुढ़ाई कर रहा है और मन्द मन्द मुस्कुराते हुए कोई लोकगीत गुनगुना रहा है। गिलहरियां, मैनों संग झाड़ियों में उछल कूद कर रहीं हैं। किसी ऊंची डाली पर बैठा मटमैले हरे रंग का तोता, अपनी साथिन को आवाज़ दे रहा है। लकड़ी का पुराना बैंच निर्विकार रूप से अपने ऊपर झरती पत्तियों को देख रहा है। जानता है, इन पत्तियों की कशिश। हरे से पीले और पीले से धूसर हो जाने तक का सफर, उसने कई बार तय किया है। तब भी जब वो शान से सर उठाये जंगल के किसी कोने में एक मोटा सा पेड़ हुआ करता था, और मनचली पत्तियां उसकी शाखों को चूम ख़ुशी में खिलखलाती थीं और अब भी जब वो धूल मिट्टी से सना एक निर्जीव बैंच है, और अपने ही जैसे कई पेड़ों की मचलती फिसलती सरगम रोज़ महसूस करता है। वो जानता है, ज़िंदगी का सफर अंतहीन है, कई राहों से गुज़रता, नित नए अनुभव करवाता। थम जाना, सम्भव नहीं। वो सामने के पुल को अक्सर निहारा करता है। अमूमन नदी में पानी कम ही रहता है पर लोगों की भीड़ दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। चहल पहल भाती है। दूर पहाड़ियों के कन्धों पर हाथ रखे कोहरा कनखियों से उत्तर दिशा की बर्फीली हवाओं से इक बार लौट आने की इल्तिज़ा कर रहा है। बहरहाल, मौसम गुलाबी है, न गर्म, न ठण्डा, घास पर चमकती ओस की बूंदों सा नाज़ुक, पतझड़-फरवरी में प्यारे-बसन्त को गले लगाने को बेक़रार…
#fursatkepal

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