One for Sorrow, Two for Joy…. बचपन में मैनों के जोड़ों को देखकर अक्सर चिल्लाते थे हम, मानो, सच में दो मैना साथ देखकर ख़ुशी ने अचानक से धावा बोल दिया हो। जब दफ़्तर जाने लगी तो पूसा का हरा भरा इलाका मेरे नियमित रुट का हिस्सा हो गया और वहां असंख्य पंछी, लम्बी सी लाल दीवार पर चहकते फुदकते नज़र आते। प्रकृति से लगाव तो हमेशा से ही था, धीरे धीरे कुछ और गहरे उतरने लगी उन झूमते पेड़ों, खिलते फूलों और गाते पंछियों के संसार में। जीवन दर्शन किताबों से कहीं ज़्यादा, इन गुपचुप प्रहरियों ने सिखाया है मुझे और अब भी जब उदास होती हूँ, इनके बीच कुछ पल सुकूँ ढूँढने निकल पड़ती हूँ। यकीन मानिए, ज़्यादा निराश नहीं करते ये कभी मुझे।
पर आज मेरे दिमाग में कुछ अलग ही उमड़ घुमड़ रहा था। पिछले कुछ दिनों से ज़िंदगी पटरी से कुछ खिसकी सी लग रही थी। ऐसा लगता था जैसे जीवन नैया किसी भँवर में फंसी है। चक्रवात सा उठ रहा है, और मैं गोते पर गोते खा रही हूँ। अंधेरा कुछ ज़्यादा गहरा और लहरें कुछ ज़्यादा ऊंची लगने लगी थीं। खारा पानी नसों में ज़हर घोलने लगा था, जुबां कड़वी और मन खट्टा सा। जाने किन पहेलियों में उलझ गई थी, लगातार भाग रही थी खुद से, अपनों से। और इस भागदौड़ में रही सही हिम्मत और ताकत भी दम तोड़े जा रही थी। परेशानियों की खासियत है कि पहला धावा वो आपके सोचने समझने की शक्ति पर बोलती हैं, बुद्धि पलट जाती है और आप खुद ही द्वार पर सांकल चढ़ा खुशियों के आने के रास्ते बन्द कर बैठते हैं। अवसाद घेरने लगता है, खुद पर तरस आने लगता है और किस्मत को कोसते आप दिन रात चिंता में घुलते जाते हैं।
पर मानव मन संसार का सबसे बड़ा अजूबा है। ये कब किस बात में जीने की राह खोज ले, कोई नहीं जानता और मैं तो ठहरी कपोल कल्पनाओं में जीने वाली अदनी सी लड़की, मैं ये सब कहाँ समझ पाऊँ। बस इतना जानती हूँ कि आज कुछ औरतें देखीं। पार्क में घास काट रहीं थीं। शायद वसन्त आगमन की तैयारी में MCD ने पेड़ पौधों की कांट छांट के लिए कॉन्ट्रैक्ट पर रखी हों। हो सकता है, पास ही बिल्डिंग बनाते मज़दूरों की बीवियां हों, daily wages पर काम करके पति की तनख्वाह में इज़ाफ़ा करने चली आई हों। बहरहाल जो भी हो, वेशभूषा से गरीब लग रहीं थीं, छरहरी कद काठी और निस्तेज से चेहरे लिए।
पर मेरे देखते-देखते जाने उनमें से एक को क्या सूझी। वो पास के सूखे पेड़ की डाल पकड़ झूल गई। शाख चरमराई और वो एक मोटी सी टहनी हाथ में थामे, विजेता की मुस्कान लिए ज़मीं पर कूद गई। उसकी सखियाँ ज़ोरों से खिलखिलायीं और अपना काम छोड़कर उसके पास चलीं आयीं। उन सबकी भाव भंगिमा अचानक बदल गई थी। वे ऊंची आवाज़ में एक दुसरे से कुछ कह रहीं थीं। भाषा मेरी समझ से परे थी, पर उनकी उमंग खासी प्रभावित कर गई।
मैं बेंच पर बैठकर उन्हें कौतूहल भरी नज़रों से देखने लगी। पार्क में खेलते बच्चों सरीखी ही तरोताज़ा लगने लगीं थीं वो। और अब उन सबने एक साथ पेड़ों पर धावा बोल दिया। आनन फ़ानन में गज़ब की तेज़ी दिखाते हुए कितनी ही सूखी टहनियां तोड़ डालीं। और फिर अपने अपने लूट के सामान को करीने से बटोरने लगीं। बड़ी टहनियों को पूरे जतन से छोटे छोटे टुकड़ों में बांटती। फिर पास से हरी बेल तोड़ी और कसकर सारी लकड़ियां समेट लीं। मैं जिसे खेल समझ इतनी अचंभित हो उठी थी, वो शायद उनके घर के चूल्हे का ज़रूरी इंतज़ाम था या फिर सर्दी से बचने के लिए अंगीठी बालने की तैयारी। बहरहाल जो भी हो, अपने गृहणी के कर्तव्य को इतनी सहजता से निभातीं, जीवन की मुश्किलों को हंसकर झेलतीं, उन औरतों की आँखों की चमक मेरे बेमतलब के निराशावादी ख़्यालों को करारा झटका दे गई। तेज़ कदमों से मैं अपने घर की ओर बढ़ चली। सुख ढूँढने से मिलता नहीं, पर चाहो तो हर परिस्थिति में बहुत आसानी से ढूंढा जा सकता है। प्रकृति ने एक बार फिर जीवन दर्शन बखूबी समझा दिया।
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