Review

फ़ुर्सत के पल, अनुपमा सरकार

एक दिन, जिसकी शुरुआत भागदौड़ और ऊहापोह से हो, वो जब ढलते ढलते, इतना मधुर हो जाए तो मन अनायास कह उठता है कि “ओ सूरज, तेरी अगन से परे एक दुनिया और है, जहां बादलों के कारवां, शीतल छांह लिए आते हैं”

ज़िंदगी के छोटे मोटे मसले, और उनसे लड़ने भिड़ने की कवायद के बीच, “फ़ुर्सत के पल” को छापने से पहले एक हिचक थी मन में, थोड़ा डर भी.. सोचती रही, लिखे को किताब का रूप दूं तो जाने पाठकों को पसंद आए भी या नहीं..

पर, आज एक सुधि पाठक, संवेदनशील व्यक्ति और कुशल समीक्षक के रूप में प्रसून परिमल जी का नेह मिश्रित आशीष मिला, तो मन झूम उठा.. आप भी पढ़िए, फ़ुर्सत के पल को प्रसून जी की नज़र से ☺️

प्रसून जी अपनी समीक्षा में लिखते हैं:

“…..क्षितिज पर नज़रें टिका सूरज और सागर का अभूतपूर्व मिलन बसा लेना चाहती हूँ आँखों में और चुपचाप, तपती रेत के छालों को बहा देना चाहती हूँ खारे सागर में….कुछ घाव नमक ही भर पाते हैं न…”

जब कहानी स्थूल घटना ,कथानक(plot), चरित्र की बहुलता को पीछे छोड़ उत्तरोत्तर सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होते सूक्ष्मतम की यात्रा पर निकल जाती है तो ‘ संवेदन ‘ के चरम को रच बैठती है जहाँ कोई ख़ास लम्हा ही नहीं ,जीवन के बेहद आम दीखते पल ही बेहद ख़ास हो सामने आ जाते हैं ,परिणामतः सामने आता है जीवन के हर ‘ कलेवर और फ्लेवर ‘ को शब्दों में समेटती ‘ फ़ुर्सत के पल ‘….जी ,वो ‘ फ़ुर्सत के पल ‘ जिसे अपनी पहली पुस्तक का नाम देते अनुपमा सरकार मन के हथकरघे पर ‘ जीवन ,दर्शन और कल्पना ‘ के तानेबाने से बुनती हैं।अनुपमा के लेखन की ख़ासियत जो मुझे बेहद आकर्षित करती है कि वह सामान्य पाठकीय अपेक्षा के अनुरूप कोई कहानी नहीं कहती बल्कि ,जीवन के बेहद साधारण से दीखते आम पलों और घटनाओं में वैसा दर्शन या विराट मनोविज्ञान ढूंढ लेती है कि उनका पाठक उन घटनाओं में अंतर्निहित संवेदनाओं से अपना व्यवहार और आचरण का सहज सह-सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से अनुपमा की कहानियों में ‘ कहन ‘ नहीं होता ,अपितु उनके ‘ कहन ‘ में दुनिया की तमाम कहानियों के नैसर्गिक सूत्र छुपे मिलते हैं…ऐसे कुदरती सूत्र जिसका साक्षात्कार एक आम- से-आम पाठक को भी उसे उसके जीवन की कहानियों का ‘ महानायक ‘ बना देता है क्योंकि अनुपमा कहानी रचती नहीं ,देखती हैं…उसमें अंतर्निहित दर्शन को पाठकों से जोड़ती हैं ,एक तादात्म्य स्थापित करती हैं।सर्वोपरि उन्हें पढ़कर ‘ एक आस जगती है मन में कि शायद उसपार कुछ नया हो….कोई तिलस्मी इंद्रधनुष जिसपर सवार हो बादलों के पार जाया जा सके ‘।

अंग्रेजी के बारह महीनों के नाम पर बारह खंडों में विभाजित/उपविभाजित और ‘ बारहमासा ‘ नाम की याद दिलाती यह संग्रह जनवरी से दिसंबर धीमी गति से आराम से टहलते ,अपने परिवेश को महसूस करते,बोलते- बतियाते चलते अनुपमा की ऐसी संग्रह है जिसमें जीवन है,उसकी व्यस्तता है , जीवन और उसके संगीत को बतलाती गहरी सांकेतिकता है —

“अक्सर हम खुशियों की प्रतीक्षा करते हैं ,पर उनके आगमन पर न जाने क्यूँ, छोटी-मोटी कमियों में उलझ कर रह जाते हैं….और जो जितना मिल रहा है,उसे भी खोने लगते हैं…।”

अनुपमा बार – बार अपने फुर्सत के पलों में स्मृतियों में जाती हैं क्योंकि वह मानती हैं-

” स्मृति की संकरी गलियों में सूरज कभी डूबता भी तो नहीं….”

तो क्या स्मृतियाँ व्यक्ति को ऊर्जावान बनाये रखती है ?कंप्यूटर और रोबोटिक्स के इस दौर में जहाँ हम मेमोरी बनाये रखने की जिम्मेदारी मशीनों पर छोड़ रहे ,वहाँ क्या हमारी ‘ छीजती ‘ स्मृतियाँ मानव जीवन को निस्तेज कर रही? ऐसे प्रश्नों को परोक्षतः उभारती अनुपमा मुझे एक नया और ज़रूरी विमर्श भी छेड़ती नज़र आ रही..।

संग्रह महज़ रोमैंटिसिज्म ही सृजित कर रही ,ऐसा भी नहीं बल्कि शहरी जीवन शैली की कई विडंबनाओं , सेल्फ़ी दौर की आत्ममुग्धता , शहरी प्रदूषण के साथ- साथ सियासी चालों तक की पूरे साहस से पड़ताल करती है , मसलन —

“….और आदमी भूल जाता है कि किसी बेक़सूर को मारने से न कभी कोई क्रांति आई है ,न किसी का भला हुआ है।केवल सियासतें पलटी जाती हैं। ”

हालाँकि अनुपमा पलों की ख़ासियत जानती हैं ,वह कहती हैं –
“…पलकों के गिरने और उठने के अंतराल में ही दुनिया बदल जाया करती है..” पर , जीवन की आपाधापी के विरुद्ध वह चेतावनी ज़ारी करने से भी नहीं चूकती —
” …क्या ज़ल्दी है ,जीवन के एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक छलाँग लगाने की…”

अन्ततः अमेज़ॉन पर मात्र निन्यानवे (एक सौ से भी कम) रुपये में उपलब्ध यह e- book अपने पाठकों के मन में हिंदी साहित्य के भविष्य को ले न केवल ‘ एक मुट्ठी आसमाँ ‘ मन के भीतर सहेजती प्रतीत होती है ,अपितु फैले अंधकार में तारों की हल्की- सी चमक भी आँखों में शेष रहने की आशा जगाए रखती है….आमीन !!! ** प्रसून परिमल **

“फ़ुर्सत के पल” amazon kindle पर मौजूद है.. आप इस लिंक पर क्लिक करके किताब खरीद सकते हैं

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