Fiction / Fursat ke Pal

फुर्सत के पल : 10

यूँ ही चली जा रही थी, गरम तारकोल की सड़क पर। चिलचिलाती धूप, हील की खटखट, आसपास गाडि़यों का शोर और इन सबके बीच खुद को सजीव घोषित करती मैं, अपनी सुनियंत्रित भावभंगिमा को चेहरे पर चिपकाए। शायद उतनी ही पाषाण जितना मील का पत्थर, और उतनी ही सजग जितना कार में इयरफोन लगाए बैठा वो इंसान जो अभी-अभी फलवाले पर बेपरवाही से कीचड़ उछाले पास से गुज़रा है। शायद संवेदनाएं विलुप्त हो चुकीं। प्रदूषित महानगर की पथरीली ज़मीन पर यूक्लिप्टस और बबूल ही लहलहाते हैं, कोमल पौधे टिकते भी तो नहीं। हर दिन थपेड़ों से जूझते, तूफानी चक्रवात की लपेट में आए उस ठूंठ सी उदासीन, जो केवल सांसें ले रहा है। खिलना तो कब का भूल चुका!

पर अचानक सोच में डूबे थके-हारे शरीर को हवा ने हल्के से छुआ। आसमान में धूप खिली थी, पर आंखों में चुभन नहीं। सीमेंट और मार्बल के सख्त फर्शों के आदी हो चुके, ये एडि़यां और घुटने भी नरम ज़मीन का सानिध्य पा खुद को हल्का महसूस करने लगे थे। चेहरे से पसीना गायब था और माथे से बल!

अरे! मैं फिर उसी पार्क में थी जहाँ दूर तक सिर्फ हरियाली है। पेड़ों पर लुकीछिपी कोयलें कूकती हैं, पागल-पंछी पत्तों के बिछे ढेर में जाने कौन सा खजाना ढूंढते नज़र आते हैं, धनेष बुलंद आवाज़ में अपने होने का अहसास दिलाता है और वो सफेद पंखों वाली चिडि़या पता नहीं कहां से उड़ती हुई मेरे सामने आ बैठती है और अपनी ठुमुक-ठुमुक चाल में पथ प्रदर्शक सी मेरे आगे-आगे चलती है।

आह! मेरे होंठों पर हल्की सी मुस्कान तैर जाती है। कितने जीवंत हैं ये पंछी, प्रकृति के हर बदलाव संग खुद को ढालते। बरसात में पेड़ों की डालियों में सुरक्षा खोजते तो धूप में आंखें बंद कर छांव में कहीं खो जाते। हर सुबह का चहचहाता स्वागत और हर शाम घोंसलों की तरफ वापसी। रूटीन में बंधे तो हैं ये भी। बस आंखों में थकन और चेहरे पर शिकन नहीं। जानते हैं न, ज़िंदगी पलों की सौगात है, रूकने का नाम नहीं !

और फिर नजर आया मुझे वही बड़ेबड़े पत्तों वाला पेड़, जो बहुत दिनों से विस्मित किए बैठा था। वही फुट भर चौड़े पत्तों वाला, सीधा सा तना है उसका और सिर्फ एक और साथी जो इसी पार्क के दूसरे कोने पर अनमना सा खड़ा है। आसपास के पेड़पौधों से एकदम अलग, जुदा सा। बहुत बार मन में आया नाम जानूं उसका। मामूली बुद्धि वाले आदमी के इकलौते सहारे गूगल पर भी सर्च मारी। पर नाम के बिना सफल हुई नहीं कभी। पार्क में भी माली काका को ढूंढने नजर दौड़ाई कई बार, पर हर बार एक छोटा सा लड़का ही दिखा, तन्मयता से गुड़ाई करता और मैं हर बार झिझक जाती, जाने क्या सोचेगा। पर आज वो बिल्कुल उसके बगल में क्यारी खोद रहा था, सो हिम्मत कर पूछ ही बैठी।

उसने हल्की सी गर्दन घुमाई और मासूमियत से बोला “ई तो सागोन है मैडम जी। लकड़ी मजबूत होवे है इसकी”

घर आकर फिर गूगल महाराज को खोला और इस बार बिल्कुल सटीक था ये चित्र। सच, जवाब हमारे कितने करीब और आसान होते हैं न। हम यूँ ही उलझे फिरते हैं गली-गली!!

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