Fiction / Fursat ke Pal

फुर्सत के पल : 9

फिर खिले हैं सेमल.. ज्यों भूरी भूरी टहनियों पर लाल-पीले बल्ब टांग दिए हों किसी ने.. जानते हैं ये बहुत भाते हैं मुझे… परन्तु रंग-रूप, आकार-प्रकार के कारण नहीं..
बल्कि देखा जाये तो इनमें नैसर्गिक सौंदर्य न के बराबर है.. जब तक फूल न खिलें, इस पेड़ को पहचान भी नहीं पाती मैं.. कहीं सेमलों के बाग़ में भी खड़ी हूँ तो भी न मालूम चले मुझे.. और फिर फूल भी खूबसूरत तो नहीं कहा जा सकता..भारी भरकम, बिन सुगन्ध का, बेढंगा सा .. गुलाब, चमेली, गुलदाउदी, डहलिया के मुकाबले टिक भी कहाँ सकता है..

पर फिर भी बेसब्री से इंतज़ार करती हूँ.. फ़रवरी के जाने और इन फूलों के आने का… दरअसल सेमल मुझे सबसे ज़्यादा सकारात्मक ऊर्जा देता है.. चुपके से खुशियों को भरपूर जीने का पाठ पढ़ा जाता है… देखिये न, इसका हर पत्ता वसन्तोत्सव में शामिल होता है… नन्हीं कलियों को खिलने का मौका दे, खुद चुपचाप तनों से उतर जाता है, जैसे बेटी का ब्याह रचाना हो, खुद की परवाह नहीं, बस उसके सुख की चिंता… अक्सर हम खुशियों की प्रतीक्षा करते हैं, पर उनके आगमन पर न जाने क्यों, छोटी मोटी कमियों में उलझ कर रह जाते हैं.. और जो जितना मिल रहा है, उसे भी खोने लगते हैं…

काश ज़िंदगी के उतार चढ़ाव को इन सेमलों सा जी पाऊँ… मन का उल्लास तन प्रफुल्लित कर दे… और हर टीस, पत्तों सी झड़ जाए… जीवन उत्सव है, व्यथाओं की पोटली बांधे क्यों फिरना…

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