आज घर लौटते हुए जब पार्क से गुज़री तो खासी भीड़ थी वहां। दिल्ली का मौसम अंगड़ाइयां ले रहा है आजकल, सर्द हवाएं लुक्काछिपी खेल रही हैं और हम दिल्लीवासी, ठण्ड में ठिठुरने को आतुर भी हैं और भीषण सर्दी के न आने से खुश भी। आखिर, अति हर बात की बुरी ही लगती है। कोहरे में दरवाज़े बंद कर, हीटर की कृत्रिम सांस फुलाती हवा किसे भाती है भला। सो, सूरज के एक और दिन पूरे जोश से ड्यूटी करने के जज़्बे को सलाम करते हुए, आज काफी तादाद में लोग जुटे थे पार्क में। हर उम्र, आकार, प्रकार की विविधता बिखेरे।
जानते हैं, हम इंसान वर्गीकरण पर बहुत ज़ोर देते हैं। हमें हर चीज़, हर बात, हर पल के लिए एक नाम चाहिए। उसके आभाव में कुछ समझ ही नहीं पाते। सो, इस इंसानियत के मूल विकार से पीड़ित मैं, जुट गई वहां मौजूद लोगों को विभिन्न वर्गों में बांटने। ज़्यादा शोर बच्चे मचाते हैं, तो ज़ाहिर है, पहले उन्हीं पर ध्यान केंद्रित हुआ।
जिस पार्क की बात कर रही हूँ, वहां बहुत से झूले लगे हैं। छोटे बच्चों की गतिविधियाँ इन झूलों के आसपास मंडराती रहती हैं। कौन कितनी तेजी से स्लाइड करते हुए नीचे आएगा और कौन कितनी ऊंची पींग बढ़ाएगा, ऐसे छोटेमोटे कम्पटीशन आम हैं। कुछ दूरी पर थोड़े बड़े बच्चे, teens कह लीजिये, अक्सर jeans पहने क्रिकेट खेलते नज़र आते हैं। इस खेल का ईजाद बेशक अंग्रेजों ने किया हो, पर आत्मसात हम भारतीयों से बेहतर शायद ही किसी ने किया है। बच्चा अमीर हो या गरीब, क्रिकेट ज़रूर खेलता है और जिसके पास अपनी पूरी किट या फिर इकलौता बैट ही हो, उसकी धाक भी ज़्यादा होती है। आखिर होने न होने का फर्क़ हम काफी जल्दी समझ जाते हैं न।
बहरहाल, आज पार्क में पानी का नल टूट गया था। मोटी पाइप को मुहाने पर पॉलीथिन से बांधकर तेज़ी से waste होते पानी का बहाव क्यारियों की तरफ कर दिया गया था। ऊंचे आदर्शों में जकड़ी मेरी बुद्धि पानी की बर्बादी की चिंता में घुले जा रही थी, उधर सूखी पत्तियां, टूटी टहनियां, बिखरे बीज और धूसर मिट्टी, अचानक आई इस बाढ़ में मछलियों से गोते खा रहे थे।
पर चलते चलते मेरी नज़र पेड़ों के झुरमुट के नीचे, कीचड़ से लबालब भरे ज़मीं के टुकड़े पर जड़वत खड़े एक लड़के पर टिक गई।
17-18 बरस का होगा। चुपचाप सर झुकाए, यन्त्रवत् सा धरती घूरे जा रहा था। सोचने लगी बिना सोचे समझे पोपली ज़मीं पर चला गया होगा। शायद ठिठका हुआ है कि लौट चले या 5 फुट के अभी अभी उभरे इस तालाब को कूदकर अक्षय कुमार सा खिलाड़ी महसूस करे। पर लड़का हिल भी नहीं रहा था।
तभी नज़र उस से दस कदम की दूरी पर खड़े दुसरे लड़के से उलझ गई। वो भी मूर्तिवत था, बल्कि एक हाथ भी ऊपर उठाये था। अचानक बचपन का स्टेचू वाला खेल याद आ गया और मैं मुस्कुराकर उसके साथियों को ढूँढने लगी, कोई तो सूत्रधार होगा ही इस खेल का।
उम्मीद के मुताबिक कुछ दूरी पर लड़के लड़कियों का छोटा सा ग्रुप उन पर ताक लगाए खिलखिला रहा था। अचानक उस लड़के का ऊपर उठा हाथ नीचे गिर आया और सारा झुण्ड एक साथ चिल्ला पड़ा, अबे हार गया तू, अब दे ट्रीट। उनकी मस्ती देख जीवन का मध्याह्न छूते इस तन में नया जोश भर आया और घूम गया आँखों के सामने ‘मैं हूँ न’ का वो सीन, जब शाहरुख़ चैलेंज के चक्कर में सुष्मिता के सामने, घुटने टेककर गा उठा था “नन्हा मुन्ना राही हूँ”
आखिर कुछ वाक़ये सिनेमा के पर्दे के हों या असल ज़िंदगी में, सालों तक गुदगुदा जाते हैं 🙂
#fursatkepal
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