Fiction / Fursat ke Pal

पूर्णाहुति

अ से अनार, आ से आम, इ से इमली, ई से ईख : क्यों, याद आई न वो रंगबिरंगी किताब जिससे अक्षर पढ़ने व लिखने सीखे थे कभी। बोलना तो बहुत पहले आ गया था। आखिर मम्मी-पापा, दादी-दादा से गुड्डे-गुड़ियों, कुत्ते-बिल्लियों के नाम सीख लेने के बाद ही तो जाते हैं न स्कूल, शिक्षा में पारंगत होने।

पर कभी-कभी लगता है कि शायद वहाँ भी केवल सांचों में ढालने की कोशिश भर होती है। उन्मुक्त सागर में गोते लगाती कल्पना को गागर में तैरने के लिए छोड़ दिया जाता है, नियम कानूनों की परिधि में। वो तांगे वाला घोड़ा तो देखा होगा न आपने भी, जिसके मुंह पर पट्टी पहना दी गई हो कि “इधर-उधर गरदन न घुमाइयो, नाक की सीध में भागते जाइयो”

पर, खैर सीधी-सपाट सड़क पर भागने के बावजूद भी दोस्त अलबेले मिले मुझे, नायाब हीरे। ज़िंदगी के पाठ पढ़ाते रहे। एक सहेली याद आ रही है। ध्यान तो होगा आपको भी, वो भूरे पहाड़ों, नीले आसमान के बीचोंबीच उगते सूरज का दृश्य जो हम बचपन में बनाते थे। हम सब आधा सूरज बनाते, हूबहू वैसा जैसे किताब में होता था। पर वो हमेशा सूरज का पूरा गोला ही बनाती थी। कोई पूछता तो तुनककर कहती, सूरज भी कभी आधा उगता है भला।

मैं चाहकर भी उसे न बता पाती कि होता है पहाड़ों में और समुन्दर में भी। यहां तक कि दिल्ली में भी कभी-कभी, जब बादल छा जाते हैं। बस ये सोचकर चुप लगा जाती कि झूठ तो उसकी बात भी नहीं। असलियत वही जो खुद को नज़र आए। दृष्टिकोण अलग हो सकते हैं, पर उसके सही-गलत का फैसला करने का अख्तियार किसी एक को ही तो नहीं। लीक से हटकर चलना गलत तो नहीं।

बस, यही विश्वास करती आई हमेशा। तस्वीर के दूसरे रूख़ को पढ़ने की कोशिश में खुद की मर्ज़ी से समझौते। कभी फूल भी फेंक कर न मारे कि जाने कौन कितना आहत हो, टूट ही जाए कहीं। पर दुनिया तो अंगारे बरसाने से चूकी ही नहीं कभी। शायद सोच ही गलत है मेरी। तभी तो ए से एड़ी और ऐ से ऐनक का सबक भूलकर सीधा ओ से ओखली में सिर दे डालती हूँ, मूसल तो पड़ेंगे ही। पर, अब और नहीं, दी आज मैंने भी इस सोच को पूर्णाहुति !

2 Comments

Leave a Reply