जानते हैं दोस्तों! मूवीज़ और लेखन का बहुत बहुत गहरा रिश्ता है। दिखने में ज़रूर लगता है कि फिल्में, हीरो हीरोइन के बलबूते चल जाती होंगी। पर दरअसल कसी हुई कहानी, सशक्त स्क्रिप्ट, और मंजे हुए डायरेक्शन के बिना, अच्छी फिल्म बनाना ही असम्भव है। उपन्यास, कहानी में कुछ पन्ने इंप्रेस न कर पाएं तो मन उचाट हो जाता है पर अगर मूवी में खूबसूरत सेट और सुंदर एक्टर्स आपको लुभा न पाएं, तो हम अक्सर कंधे उचका कर बात को जाने देते हैं। कभी कभी ये भी महसूस होता है कि घिसे पिटे विषयों पर बनने वाली फिल्में ही बॉक्स ऑफिस पर सफलता बटोरती हैं क्योंकि उनमें मास अपील होती है। जो चंद हटकर फिल्में बनती हैं, वे तो बस कलात्मक दर्शक के लिए ही। उनमें कमाई की संभावना कहां?
पर सच तो ये है दोस्तों कि एक अच्छी फिल्म, किसी भी किताब से ज़्यादा सुकून दे सकती है। बशर्ते, उसके किरदार कुछ ऐसे हों, जो आपके दिलोदिमाग पर छा जाएं। और कहानी अपने ट्रैक पर दौड़ती हुई, किसी भी मोड़ पर आपको धक्का देने में सक्षम हो। डायलॉग्स का चुस्त दुरुस्त होना भी बेहद ज़रूरी। और ये सब हो जाए तो, फिर विजुअल मीडियम ज़्यादा इंप्रेसिव होना ही हुआ।
पर फिर भी हमारे देश में, बॉलीवुड में, फिल्मों की कहानियां समतल ही हैं, उनमें कोई उभार पठार दूर तक नज़र नहीं आता। मसान जैसी कोई इक्का दुक्का मूवी ज़रूर इंप्रेस कर जाती है, पर बाकी सब तो धराशायी ही हैं। कल और आज में दो फिल्में देखीं। पहली “थप्पड़” जो तमाम बातों और दावों के बावजूद, किरदारों, कहानी और डायलॉग्स के स्तर पर बेहद मामूली फिल्म साबित हुई।
और वहीं दूसरी ओर देखी एक कोरियन फिल्म, Parasite, जो अपने सबटाइटल्स के ज़रिए ही मेरा दिल ले गई। हां, और दिमाग पर और ज़्यादा असर किया इस मूवी ने। एकाध धोखेबाज की कौन कहे, इस मूवी में तो माता पिता, बेटा बेटी, चारों ही महा चोर हैं। अपनी बातों में फंसा कर, येन केन प्रकारेन पार्क परिवार में नौकरियां पाते हैं, और फिर…
न न दोस्तों, इसके आगे नहीं बताऊंगी वरना पूरी पोल खुल जाएगी पर लब्बोलुआब ये कि Parasite, बहुत ही ज़बरदस्त तरीके से इंसानी फितरत की तहें खोलती नज़र आती है। अमीर कितने भोले और गरीब कितने शातिर हो सकते हैं, इसका बड़ा ही दिलचस्प मनोविज्ञान इसमें देखने को मिलता है। लीक से हटकर कहानी लिखी जाए और फिल्म बनाई जाए, तो कुछ इस तरह कि सभी पूर्वाग्रह ध्वंस हों नहीं तो बड़ी बड़ी बातों के बावजूद, characters, caricatures भर रह जाते हैं। और फिल्में सिरे से फ्लॉप।
शब्दों की दीवानी हूं। भावों में बहना भाता है मुझे। फिर वो गीत हो, कविता, कहानी या फिल्म, मीडियम मायने ही कहां रखता है!
आपको भी कभी ऐसा लगा क्या? बताइएगा ☺️
अनुपमा सरकार (मेरे शब्द मेरे साथ)
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