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फाईल

भोजपुरी पंचायत के अक्टूबर अंक में छपी मेरी पहली कहानी

फाईल

आरोपों प्रत्यारोपों की कोई सीमा होती है क्या? या फिर ये सोच विचार, समझबूझ निपट जुमले ही हैं जिन्हें हम अपनी सुविधा अनुसार आचरण में लाते और भूल जाते हैं। एक फाईल पर हुआ छोटा सा बवाल किस कदर उग्र रूप धारण कर सकता है, ये बात सुधा को बस आज ही समझ आई।

हुआ कुछ यूं कि एक ज़रूरी सूचना शाम तक समाचार पत्रों में छपने के लिए भेजनी थी। अगले हफ्ते मंत्री जी ज़िले के दौरे पर आने वाले थे और उनके स्वागत में आयोजित कार्यक्रम की रूपरेखा जिलाधिकारी के दफ्तर में जमा करानी थी। रफ मसौदा तैयार था। बस मुहर लगनी थी बड़े साहब की।
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पर सरकारी कामों में जब तक फाइनल ड्राफ्ट पर हस्ताक्षर न हो जाएं, कार्रवाई पूरी नहीं होती और बड़े साहब केवल नाम के बड़े नहीं, सचमुच ऊंची नाक और मंहगे चश्मे वाले, सलीकेदार अफसर थे। यानि पक्के कानूनबाज़। एक दिन का काम चाहे सप्ताह भर पूरा न हो पाए, पर कोई भी स्टेज मिस नहीं होनी चाहिए। दफ्तरी से लेकर शाखा अध्यक्ष तक सब टंग जाते उनके एक इशारे पर।

सुधा नई थी दफ्तर में, नियमों की नहीं उसूलों की पक्की। उसने अपने हिस्से का काम निबटाया और साहब के टेबल पर सरका दिया। दो घंटे में फाईल बड़े बाबू के पास “प्लीज़ चैक” के सीधे साधे से आडर्र के साथ वापस चली आई।

अब बड़े बाबू भी कम तो थे नहीं, हां चश्मा ज़रूर सस्ता पहना करते थे। पर १०० रूपये की उनकी ये ऐनक हिसाब किताब के मामले में चित्रगुप्त को भी मात देने में पूर्णतया सक्षम थी। एक नज़र दौड़ाई उन्होंने सुधा के ड्राफ्ट पर, बोले ये बनाया है आपने, पत्र है या गलतियों का मसौदा, ऊपर से नीचे तक पूरा गलत। ऐसा कहकर मोस्ट अरजेंट के दो भयंकर शब्दों पर लंबी सी लाईन लगाई और फाईल वापस पटक दी, इस हिदायत के साथ कि काम करो तो ऐसा कि उसमें कमी ढूंढे न मिले। और कुछ इस कदर घूरकर देखा मानो नौलखा हार चुरा लिया हो किसी ने उनका!

सुधा परेशान खड़ी गलती समझने की कोशिश में लगी थी और बाकी साथी, इस कानाफूसी में कि बड़े बाबू के हाथ से मसौदा पास करा लेना, कोई बच्चों का खेल थोड़े ही है। और इस नई लड़की को आता ही क्या है जो सीधा फेयर लैटर बना रही है। आखिर जब तक अफसर न समझा दे, कोई कुछ लिख भी कैसे सकता है।

लाख सिर पटका सुधा ने, पर समझ न पाई कि आखिर चूक हुई तो हुई कहां? हार कर साथ बैठे क्लर्क से पूछ ही बैठी कि क्या कमी है काम में। गुप्ता जी भी अपने नाम को पूर्ण रूप से चरितार्थ करते थे। छोटी से छोटी चीज़ को गुप्त रखना जैसे उनके स्वभाव में ही था। फिर बड़े बाबू की बात का खुलासा कैसे कर देते। बीस साल हो गए, उन्हें एड़ियां रगड़ते, वही कब समझ पाए थे, जो अगली को समझा पाते। मुंह बिचका के बोल उठे, इतना भी नहीं जानतीं तो सरकारी नौकरी में क्या खाके कदम रखा था और अपनी सीट से उठकर चलते बने। उनकी देखादेखी शिखा मैडम, सिंह साहब और मालती भी फाइलों की आड़ में मुंह छुपाने लगे।

सुधा इनके व्यवहार से सकपका रही थी। गलती न समझ आ रही थी न समझाने वाला ही दीख पड़ता था। समय बीतता जा रहा था और हल कोई सूझता नहीं। दोपहर ऊहापोह में बीत गई। 3 बजते बजते बड़े साहब का चपरासी दो बार धमका भी गया। अब सुधा की आंखों में पानी था और ज़ुबान खामोश। उसे ये अचानक आया परिवर्तन समझ ही नहीं आ रहा था। अभी कल ही तो सबने चटकारे लेकर उसकी जोएनिंग पार्टी इन्जोय की थी और बेहद आत्मीयता से दफ्तर में उसका स्वागत किया था। पर अब यकायक वह अपराधी ठहरा दी गई थी। एकदम अकेली और परेशान। तिस पर उसके रवैये को लेकर फब्तियां अलग कसी जा रही थीं।

रूआंसी सुधा अचानक आए इस संकट में अभी गोते खा ही रही थी कि बड़े साहब शाही अंदाज़ में गंभीर मुद्रा बनाए कमरे में प्रवेश कर गए। उन्हें देख, सबको सांप सूंघ गया और बचपन की कक्षा याद हो आई। वही, प्रिंसिपल की ऐंट्री और बच्चों का घबराकर उठ खड़े होना, एक स्वर में गुड आफ्टरनून का कर्कश आलाप।

बड़े साहब आते ही बड़े बाबू की सीट पर जम गए और वे सामने खड़े घिघियाने लगे, मैं तो आ ही रहा था सर, आपने क्यों तकलीफ की। साहब तल्खी से बोले, सुबह से शाम हो गई, एक फाईल चैक न हुई आपसे, क्या सोच कर महीने की पहली तारीख को सरकारी पैसा अंटी में दबा कर ले जाते हैं। सब के सब कामचोर हमारे ही पल्ले पड़ने थे। मंत्री जी का काम समय पर न कर पाए, आम जनता का क्या खाक करेंगे। अगर नियम की बंदिश न होती तो कब का निकाल फेंकता स्टाफ को और खुद ही कर लेता सब काम। क्या जवाब दूं आगे, शर्मिंदा कर दिया, मंत्री जी के पी. ए. के आगे।

साहब का पारा चढ़ता जा रहा था और बड़े बाबू के शांत भाव पर हल्का सा कसैलापन आ रहा था। चार कदम बढ़ा सुधा की सीट पर आए, फाईल उठाई, सरसरी सी नज़र दौड़ाई और झट घुग्गी मार साहब के पास लेकर भागे, बोले, अरे हुज़ूर कमियां तो बहुत थीं, इस नई लड़की के काम में, पर मैंने सब सिखा दिया। बस ये मोस्ट अरजेंट अंडरलाइन करना रह गया था, लीजिए अब वो भी पूरा हुआ!

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