फिर खिल गया गुलमोहर
फिर आग बरसी धरती पर
फिर कठफोड़वा ठोके लकड़ी
फिर इठलाए बेला की कली
फिर चहकने लगी रातरानी
फिर पीपल की पत्तियां हरी हुईं
फिर से कोयल कूकने लगी
फिर से गिल्लू के बच्चे दौड़ लगाने लगे
फिर से वही अमलतासी आस जगाने लगे
शायद साल बदल गया है
समय भी आगे भाग आया
बालों की चांदनी और उजागर हुई
आंखों के गिर्द अंधेरा और गहराया
नम पड़ी चाल की तेज़ी
बदन का फुर्तीलापन
शायद कुछ और नरमाया
समय के अनवरत पथ पर
कुछ और स्मृतियों ने दम तोड़ा
उम्र के ढीले रथ पर शायद
कुछ और कीलों ने पकड़ बनाई
पर देखो न ये प्रकृति बाज़ न आई
सब कुछ बदल गया पर फिर भी सब वैसा ही
अब भी सूरज की किरणें सोना लुटाती हैं
अब भी चांद की शीतलता झंकृत कर जाती है
अब भी चकोरी अपने साथी की याद में गीत गाती है
अब भी हर सुबह उम्मीदों का पुलिंदा लिए आती है
और हर शर्मीली शाम क्षितिज से धीमे-धीमे धरा पर चली आती है
सच समय नहीं सपने, यादें, उम्मीदें संजोए आता है हर मौसम
और ज़िंदगी की थकन भरी दोपहर में इस कशिश भरी सांझ का स्वागतम!
Anupama
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