ज़िन्दगी में फैसला लेना शायद सबसे मुश्किल काम है.. खासकर तब जब आपकी हां या न, किसी की जान ले सकती हो या बख़्श सकती हो.. नहीं, मैं यहां किसी प्रेम प्रसंग की बात नहीं कर रही, न ही किसी साक्षात्कार की.. पर ज़रा सोचिए, अगर सचमुच आपका एक फैसला किसी को मौत के मुंह में धकेलने या फांसी से बचा लेने में सक्षम हो तो? क्या करेंगे आप?
शायद हम में से ज़्यादातर लोग कहेंगे कि मौत या ज़िन्दगी ईश्वर के हाथों है, हम उसका इल्ज़ाम अपने सर क्यूं लें, सो बख्श देंगें यकीनन..
पर नहीं, इंसानी फितरत समझना इतना आसान भी नहीं.. चाहे अनचाहे, हम अपने पूर्व अनुभवों से इतने प्रभावित होते हैं कि कभी कभी, मौत भी हल्की बात दिखने लगती है, जिसका निपटारा चंद मिनटों में किया जा सकता है..
जी, होता है ऐसा… और इसी मुद्दे को लेकर एक बहुत ही ज़बरदस्त फिल्म बनाई थी बासु चटर्जी साहब ने, 1986 में.. नाम भी एकदम कहानी के अनुरूप “एक रुका हुआ फैसला”
कहानी कुछ यूं है कि झुग्गी में रहने वाले एक लड़के पर अपने पिता के क़त्ल का इल्ज़ाम है.. हथियार, एक खूबसूरत सा पॉकेट नाइफ है और दो चश्मदीद गवाह, एक बूढ़ा आदमी और एक बूढ़ी औरत; क़त्ल का समय, आधी रात, जब सामने की पटरी से एक ट्रेन धड़धड़ाती हुई गुजरती है, और वो बूढ़ी औरत सामने की बिल्डिंग से क़त्ल होता, और बूढ़ा आदमी नीचे के मकान से झगड़े की आवाज़ें सुन लेते हैं..
Circumstantial evidence के भरोसे लड़के को क़ातिल मानकर फांसी की सज़ा सुना दी गई है… पर कहीं कोई शक शुबहा बाकी न रह जाए, इसलिए शहर के 12 गणमान्य लोगों की जूरी को आखिरी फैसला लेने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है..
उनकी हां या न, लड़के को मार या जिला सकती है..
सोच में पड़ गए न आप भी, आखिर ऐसा खतरनाक फैसला लेना आसान भी तो नहीं.. एक गलत फैसला सालों तक आत्मा कचोटेगा और शायद आप भी अब तक मेरी तरह जूरी से सहानुभूति करने लगे होंगें, जिन्हें इस पसोपेश का सामना करना है..
पर नहीं, यहीं तो इंसानी फितरत अपना रंग दिखला जाती है.. 11 जूरी मेंबर, बिना सोचे समझे, बिना किसी डिस्कशन के लड़के को मुज़रिम मान लेते हैं.. उनके लिए यह केवल एक काम है, जिस से किसी भी तरह जल्दी से पीछा छुड़ाकर अपनी व्यस्त ज़िन्दगी में लौट जाना है..
केवल एक जूरी मेंबर, जुरोर नंबर 8, के के रैना, लड़के को मासूम मानते हैं.. और अपना वोट उसके पक्ष में देते हैं.. चूंकि जब तक 12 के 12 लोग, एक तरफ नहीं होते, फैसला नहीं लिया जा सकता, नतीजतन, फैसला रुक जाता है, और उस पर एक लंबी गरमागरम बहस होने लगती है..
और यही बहस, इस फिल्म का सबसे ज़ोरदार पक्ष है.. कैसे हम भेड़चाल के गुलाम हैं, किस तरह हमारी मानसिकता, सबसे आसान रास्ता चुनने में जुटी रहती है और किस बुरी तरह हम अपने पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर, किसी भी सिचुएशन या घटना को समझते बूझते हैं, “एक रुका हुआ फैसला” बहुत ही पुरजोर तरीके से इसे दिखाता है…
बेहतरीन अभिनेताओं की पूरी टोली है इस फिल्म में.. बूढ़े, खांसते अनु कपूर; ज़ुबां लपलपा कर, बात करते, गुस्सैल पंकज कपूर; धीर, गम्भीर किन्तु पक्षपाती ज़हीर अब्बास और बेहद शालीन किन्तु सबसे मज़बूत किरदार के के रैना साहब..
ज़ाहिर सी बात है कि फिल्मांकन तो कमाल होना ही हुआ.. मूवी अंत समय तक दर्शक को बांधे रखती है और हैरतअंगेज़ तरीके से, जूरी मेंबर्स के साथ साथ आपको भी “गिल्टी” “नॉट गिल्टी” के दो दल में बांट देती है.. लॉजिक को किस तरह उलटा जा सकता है और किस तरह हर वो बात जो विपक्ष में दिख रही थी, उसे पक्ष में किया जा सकता है.. आंखों देखी, कानों सुनी बात भी झूठी हो सकती है.. और कभी कभी सबसे इमपॉसिबल बात ही कैसे सच साबित हो सकती है, इसका बेहतरीन इस्तेमाल, इस मूवी में दिखा…
हालांकि मूवी ओरिजिनल नहीं है, बल्कि 1957 में बनी अमेरिकन मूवी 12 Angry Man की कॉपी या यूं कहें अनुवाद है.. और इंग्लिश मूवी भी दरअसल Reginald Rose के नॉवेल से प्रेरित थी.. पर, फिर भी हमारे हिंदी सिनेमा में, सोच समझ को चैलेंज करती, ऐसी नायाब मेनस्ट्रीम मूवीज़ कम ही दिखती हैं..
एक रुका हुआ फैसला उन चंद फिल्मों में से एक हैं, जो आपको झकझोर कर रख देती हैं… बेहतरीन फिल्म
Anupama
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