कल एक मूवी देखी ‘एक डॉक्टर की मौत’… नाम जितना अजीब, फिल्म उतनी ही गहरी… पंकज कपूर, शबाना आज़मी मुख्य किरदार… इरफान खान और दीपा साही सहायक भूमिकाओं में… कहना होगा कि एक अलग ही तरह की पिक्चर है ये.. विषय भी एकदम हट कर… एक ऐसा डॉक्टर जो कुष्ठ रोग को जड़ से मिटा देने के लिए रिसर्च कर रहा है और एक व्यवसायिक चिकित्सक समाज, जो उसकी इस मुहिम में पल प्रतिपल अवरोध पैदा करना ही अपना कर्तव्य समझता है…
हमारे बॉलीवुड में, जो कि रोमांच और रोमांस की वेदी पर ही नृत्य करता नज़र आता है.. वहां भी विज्ञान और अनुसंधान जैसे विषय पर एक मानवीय संवेदनाओं से भरपूर कहानी गढ़ी और प्रस्तुत की जा सकती है, ये विश्वास मुझे इस फिल्म को देखकर ही आया…
एक डॉक्टर की मौत डॉ दीपांकर राय की कहानी है.. वे एमबीबीएस की डिग्री वाले एक सरकारी चिकित्सक हैं.. पर नौकरी वे केवल आर्थिक मज़बूरी की वजह से करते हैं.. उनका मन तो रिसर्च में ही रमता है.. घर के एक कमरे में लैब बना रखी है, जहां चूहों और बन्दर पर वे कोई एक्सपेरिमेंट करते रहते हैं.. न खाने का होश न सोने की चिंता, पत्नी सीमा (शबाना आज़मी) उनके इस पागलपन से बेहद त्रस्त हैं.. वे हद दर्जे तक खुद को अकेला व उपेक्षित पातीं हैं.. और इसकी शिकायत भी लगभग रोज़ करती हैं.. पर डॉक्टर साहब को तो बस अपनी लैब से ही प्यार है..
एक दिन अचानक अखबार में छपता है कि उन्होंने कुष्ठ रोग से बचने की वैक्सीन तैयार कर ली है.. रातोंरात वे मशहूर हो जाते हैं, पर उनकी इस कामयाबी से अधिकांश लोग खुश नहीं, बल्कि ईर्ष्या करते नज़र आते हैं और उन्हें सरकारी और सामाजिक तंत्र में फंसाकर, उनकी प्रगति का रास्ता रोक दिया जाता है…
इस मूवी की कहानी हर उस इंसान को अपनी कहानी लगेगी, जिसने कभी भी कुछ हटकर करने की कोशिश की हो और अपनों और बेगानों के हाथों ज़िल्लत सहन की हो.. समाज का एक बड़ा तबका लीक पर चलने वालों का ही साथ देता है, आप थोड़े से अलग हुए नहीं कि सनकी और पागल की उपाधि से नवाज़ दिए जाते हैं.. और ऐसी विपरीत परिस्थितियों में हम में से अधिकांश लोग ढर्रे पर चलने को ही अपनी नियति मान लेते हैं…
पर इस फिल्म को देखते हुए, मुझे ये कई बार महसूस हुआ कि अक्सर खामियां दोनों तरफ हुआ करती हैं.. जीनियस या टैलेंटेड व्यक्ति के असफल होने का कुछ क्रेडिट उसके खुद के दंभ और अहम को भी जाता है… यहां दीपांकर चाहे अनचाहे शबाना को बेहद दुख देते हैं.. यहां तक कि वे एक सीन में उन्हें छोड़कर जाने का फैसला भी कर लेती हैं.. पर जाती नहीं.. क्यूंकि वे कहीं न कहीं अपने पति की कमजोरियों को पहचानती हैं और उनका साथ, अपनी ईगो को दबाते हुए, दिए जाती हैं…
पर शबाना का प्यार में झुकना एक बात है और डॉक्टर साहब का बात बात पर तिलमिलाकर अपने अफसर और साथियों पर सवार हो जाना एक अलग बात… सफलता केवल थियोरेटिक्ल बुद्धि से नहीं वरन् प्रैक्टिकल वाइवा से गुजरकर मिलती है.. ये बात समझने में दीपांकर बाबू सिरे से विफल रहते हैं… मुझसे कभी एक अच्छे दोस्त ने कहा था कि अमृता प्रीतम जैसा नाम कमाने के लिए, केवल अच्छा लिखना नहीं, वरन् सही जगह और सही समय पर होना भी ज़रूरी है, जो कि किस्मत से ही होता है, आपके टैलेंट से नहीं.. या फिर शायद हमें उतना ही मिलता है, जितना हम कोशिश करते हैं.. सफल होने के लिए अपने कंफर्ट ज़ोन से बाहर आना बेहद ज़रूरी है, जो शायद इस मूवी का हीरो अंत तक नहीं कर पाता…
हां, कहानी बांधती है… कथानक में कोई सरप्राइज़ न होने के बावजूद आप पूरी मूवी बेहद गम्भीरता से देखते हैं… हालांकि कई जगह डायरेक्शन और एडिटिंग बेहद कमजोर नज़र आती है.. एक सीन से दूसरे सीन तक, कुछ है, जो छूट जाता है… या फिर हड़बड़ी में तय कर लिया जाता है.. और कभी कभी ये एक मूवी न होकर डॉक्यूमेंट्री सी लगने लगती है…
पर फिर भी फिल्म अपनी बात कहने में सफल रहती है, क्यूंकि आप पंकज कपूर के अग्गरेशन, शबाना के चिड़चिड़े समर्पण और इरफान खान के सटलनेस के सम्मोहन में बंधे हुए, कथानक के साथ बहते रहते हैं…
कुल मिलाकर मूवी धीमी गति से चलते हुए, मन में उतर आती है और इस लीक से हटकर चलने वाली कहानी में तड़पते चूहों और इंसान को देखकर, आप एक दो पल के लिए ही विचलित होते हैं और फिर शांत भाव से समाज और व्यक्ति के fatal flaws में खो जाते हैं… और एक डॉक्टर की मौत देर तक न भुलाए जा सकने वाली मूवीज़ में चुपके से शामिल हो जाती है… गर धीमी गति और साइंटिफिक डायलॉग्स पचा सकते हैं तो देखिएगा ज़रूर 🙂
Anupama
Recent Comments