मुझे कुछ समझ नहीं आता.. समर्थन या विरोध.. दोनों ही समझ से परे..
जौहर गर्व या शर्म नहीं, किसी खास वक़्त में, चन्द लोगों द्वारा, अपनी समझ व परिस्थिति अनुसार, “करो या मरो” के तहत लिया निर्णय मात्र था.. भंसाली का इस विषय पर फिल्म बनाना, उनकी प्रकृति अनुसार ही लिया एक और निर्णय..
याद हो तो उन्होंने सांवरिया की रिलीज़ से पहले सोनम और रनबीर की फोटोज़ तक मीडिया में नहीं आने दी थीं.. और फिल्म में सरे स्क्रीन रनबीर का टॉवल गिरवा दिया था.. खैर वो फिल्म भी ट्रेलर के बाद ही न देखने का मन बना चुकी थी और उनकी लेटेस्ट भी.. भंसाली और मेरी जमती नहीं.. देवदास देखी थी मन से, और फिर उपन्यास पढ़ते ही खीझ उठी थी.. ये क्या हाल किया शरत दा के उपन्यास का!! पर वहीं स्वरा भास्कर भी, लक्ष्मीबाई, सती जौहर और योनि को एक सांस में बोलकर, चूकती ही नज़र आती हैं.. आउट ऑफ कॉन्टेक्स्ट, हिस्ट्री समझी भी नहीं जा सकती.. या फिर शायद मैं ही विरोध और समर्थन समझ नहीं पाती..
वहीं खिलाड़ी कुमार जब “तू चीज बड़ी है मस्त मस्त” गाते थे, तब भी हास्यास्पद लगते थे.. और आज जब यूनिवर्सिटी में प्रमोशन के लिए, पैड्स बांट, अचानक नारी के हित की बात उठाते हैं, तो भी मुझे कोई सीरियस नज़र नहीं आते…
औरतों को सोलह श्रृंगार के लिए बाध्य किया जाए तो भी मुझे चिढ़ होती है और जब उनसे, श्रृंगार न करने को कहा जाए, तब भी… जब दहेज के लालच में किसी को मारा पीटा जलाया जाए, तब भी कराह उठती है.. और जब ज़बरदस्ती किसी को दहेज उत्पीड़न में फंसा, उसकी ज़िंदगी बर्बाद कर दी जाए, तो भी सिहर उठती हूं..
पितृ सत्ता के विरोध में जब पुरुष गाली का पर्याय बन जाए, तब अचकचहाट होती है.. और नारी उत्थान के नाम पर, केवल रोल रिवर्सल होते देखना, मुझे parodies की याद दिलाती है.. जो कितनी लुभावनी क्यों न हो, उनका अपना कोई वजूद नहीं..
क्या सचमुच हम केवल extremes की बात कर सकते हैं, कोई बीच का रास्ता ही नहीं.. समाज से न्यूट्रल गियर मिसिंग है क्या.. या फिर सोची समझी प्लानिंग है.. हम सबको खेमों में divide करने की, ताकि बन्दर बांट जारी रहे..
पता नहीं, ज़्यादा ज्ञान नहीं.. सो मुझे तो कुछ समझ नहीं आता…
Anupama
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