बारिश की बूंदों का सीमेंट के फर्श और लोहे की बरसाती पर तड़कना.. बादलों का सूरज को आगोश में लेकर हुमकना.. मस्त पेड़ों का झोंकों संग ठुमकना..
आज की सुबह चुलबुली प्रकृति की अंगड़ाई संग शुरु हुई है.. अंधेरे की अभ्यस्त आंखें, आंगन में इठलाती हल्की रोशनी को एकटक निहार रही हैं..
पानी ज़रा सा पड़ा नहीं कि सदाबहार सर उठाकर खड़ा हो चला है.. मैं देख रही हूं, गोल पत्तियों का ज़रा ज़रा कसकना.. कांटों भरे गुलाब के बीचोंबीच चंचल लाल नवांकुरों का मुस्कुराना.. तुलसी का हरियाना.. रात रानी का लजाना.. और वहीं कहीं मोतिये की मादक सुगन्ध संग अंगूर की बेल का निष्ठुर दीवार को आलिंगन बद्घ करना..
नवजीवन की बूंदें, हिलोरे मारती, फिर लौट आई हैं.. मई की तपिश, लू की गरमाईश, गालों पर लाली बन उभरी थी.. अब अधरों पर जल का स्पर्श लावण्य की नई परिभाषा गढ़ रहा है.. पेड़ पौधे, जीव जंतु, मनुष्य पशु, एक दूसरे के परिचायक लग रहे हैं..
बिम्ब नहीं जानती, प्रतिमान नहीं मानती, बस मुग्ध हो देखती हूं, एक पिता का, बेटी की चोटियां गूंथते हुए, ममतामय हो जाना.. एक स्त्री का, सब्जी में छोंक लगाते हुए, कमनीय हो जाना.. एक कुत्ते का किसी अपने की टांग पर लिपट, बालपन में इठलाना.. एक पतंगे का तितली सरीखा फड़फड़ाना.. और सुबह सवेरे जीवन की गतिविधियों को डायरी में अंकित करते हुए, कठिन दिनचर्या का सरल सहज हो जाना.. अनुपमा सरकार
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