“धमाका” पहली बार सुना तो फिल्म का नाम अच्छा लगा। आजकल की पत्रकारिता और मीडिया के पब्लिक इनफ्लुएंस पर आधारित है, यह जानकर उत्सुकता कुछ बढ़ी। कार्तिक आर्यन हीरो हैं, यह देख सुनकर उम्मीदें कुछ और परवान चढ़ीं और मैं नेटफ्लिक्स के परदे पर नई नई अवतरित हुई इस पिक्चर को देखने का लालच नहीं छोड़ पाई।
पर अब, लगभग ढाई घंटे तक स्क्रीन ताक लेने के बाद सोच रही हूं कि स्टोरी में तो संभावनाएं थीं, स्क्रीन प्ले में इतना इतना इतना बुरा हाल कैसे और क्यों कर दिया गया !!!
कार्तिक की स्क्रीन प्रेसेंस से खासी इंप्रेस्ड रहती हूं, पर यहां “पाठक जी” का रोल निभाते कार्तिक, एक सुलझे हुए मुखर टीवी एंकर तो दूर की बात, हंसमुख रेडियो जॉकी भी नहीं लग पाए। साफ़ साफ़ झलक रहा था कि टीवी और रेडियो, दोनों ही मीडियम्स के स्टार परफॉर्मर्स को कॉपी करने की कोशिश में कार्तिक आर्यन इतने कन्फ्यूज्ड हो गए कि इंप्रेसिव डायलॉग डिलीवरी, जो कि उनका सबसे बड़ा प्लस पॉइंट है, उस से भी चूक गए!
बाकी रही कहानी तो बड़ी सीधी सी बात कि एंग्री कॉमन मैन की थीम पर बनी यह मूवी, बार बार A Wednesday की याद दिलाती है और नसीर की स्ट्रॉन्ग प्रेसेंस और मूवी के सस्पेंस के सामने बहुत बुरी तरह फेल हो जाती है!
Poor imitation कह सकते हैं और तिस पर किसी भी तरह सेंसेशन फैलाने की कोशिश में लगे डायरेक्टर और स्क्रिप्ट राइटर भूलते नज़र आते हैं कि hype सिर्फ़ कुछ एपिसोड्स को उल्टा सीधा जोड़कर क्रिएट नहीं की जा सकती। बम धमाका हो रहा है, लोग मर रहे हैं, स्टार एंकर के कान में बम फिट है या महिला पत्रकार हिलते डुलते ब्रिज पर खड़ी होकर बच्ची की जान बचा रही है, इन scenes को सिर्फ़ इमेजिन नहीं करना था बल्कि कुछ इस तरह पर्दे पर उतारना था कि दर्शक इमोशनली कनेक्ट हो पाएं।
पर अफसोस इस मूवी में ऐसा कुछ नहीं हुआ। एक के बाद एक सीन जुड़ता गया, टीवी पर एड्स चलती रहीं और धमकी देता “कॉमन मैन” इन एडवरटाइजमेंट के बीच बीच में अपनी दास्तां, पूरी नाटकीयता के साथ सुनाता रहा…
जर्नलिज्म जिस सोपान पर आज खड़ा है, वहां यकीनन खबरों को चटपटा और करारा दिखाने का चलन ही आज का सच है। “धमाका” के जरिए पत्रकारिता का खोखलापन दिखाने की मंशा ज़रूर रही पर अफ़सोस, यह फिल्म भी उतनी ही खोखली और नकली लगी। फिल्म देखना चाहें तो ज़रूर देखें बस कोई उम्मीद मत रखिएगा… अनुपमा सरकार
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