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Delhi, A Gas Chamber

किसान पराली जलाना बन्द नहीं करेंगें…

बच्चे और बच्चों से भी ज़्यादा वो वयस्क, जो सिविक सेंस के मामले में ज़िद्दी बच्चों से भी गए गुज़रे हैं, ताबड़तोड़ रबर, कूड़ा, पटाखे जलाना बन्द नहीं करेंगें…

कंस्ट्रक्शन करवाने के शौकीन मलबे को ठिकाने लगाने की ज़हमत नहीं उठाएंगे.. प्रदूषित वाहनों के मालिक फर्जी NOC बनवाना बन्द नहीं करेंगें..

आज़ाद देश के वासी हैं भाई, जिसकी जो मर्ज़ी हो, वही करना है, वातावरण गया भाड़ में..

और हां, ज़्यादा परेशानी हो तो आप सांस लेना बन्द कर दीजिए.. घर में कैद होकर बैठिए.. और खांसते छींकते हुए विचार कीजिए कि कैसे और क्यों, ऊपर लिखे लोगों को गैस चैंबर बनती दिल्ली दिखती नहीं !!!

दिल्ली रिकॉर्ड बना रही है… आंखों में धुआं, दिल में दर्द देते हुए…

आज एक कलीग से बात हो रही थी.. ज़मीनों से जुड़ी हैं वो और बता रहीं थीं कि इस वक़्त किसान धान का वो पोर्शन जला रहे हैं, जो उनके किसी काम का नहीं.. पहले जब फल लकड़ी की पेटी में बेचे जाते थे, तब ये इस्तेमाल हो जाते थे.. पर अब बेकार हैं…

मन में सवाल उठा कि बंगाल में तो सदियों से धान उगाते हैं तो फिर वहां भी यही हाल क्यूं नहीं.. कलीग ने ही बताया कि वहां तो पानी बरसता है, सो गल जाता है… यहां जल्दी से अगली फसल बोने के लिए ज़मीन खाली चाहिए तो जलाना ही पड़ेगा..

मैंने कहा पर पराली तो हमेशा से थी, अब ये समस्या क्यों?

वे बोलीं, “पहले की बात और थी.. पराली का काफी हिस्सा फलों के बक्सों जैसे छोटे उद्योगों में बेच दिया जाता था.. मवेशियों के चारे के लिए इस्तेमाल होती थी.. हमारे गाय बैल ही खा लेते थे या फिर बेच देते थे

पर अब बैल खेत में जुताने, लगभग खतम कर दिए गए.. बाकी मवेशी पालना भी कम ही कर दिया, बहुत मेहनत लगती है.. क्या ज़रूरत..

और फिर पहले इतनी पराली नहीं होती थी.. धान हाथों से काटते थे, तो खेतों में पराली कम बचती थी, उस से जानवरों के लिए tooda बना लेते थे.. फूस छतों के काम में भी ले लेते थे.. बिकती थी पराली तो कीमत थी उसकी, अब बेकार है..

मशीनों से धान काटने की वजह से धान का बहुत सारा हिस्सा पराली बन जाता है, और टुकड़े टुकड़े करके वहीं खेत में फैल जाता है.. कायदे से तो पानी भर दो खेत में तो गल जाए.. या गडडे में भरकर रख दो तो खाद भी बन जाए.. पर अब तो हमको subsidized rate पर fertilizer मिलते हैं, क्यूं खाद बनाने में मेहनत करें.. मजदूर लगाने पर पैसा क्यूं खर्चें, सबसे आसान तरीका है “खेतों में आग लगा दो” जल जाती है पराली… पैसे भी बच गए, मेहनत भी… और खेत भी खाली हो गए जल्दी से अगली फसल बोने के लिए”

शायद ये कारण है कि पराली इतनी बड़ी समस्या बन गई

तब से सोच रही हूं कि क्या हम फसलों में वैरायटी लाने और मुनाफा जल्दी और ज़्यादा कमाने के चक्कर में, पर्यावरण के साथ जाने अनजाने बेइंसाफी तो नहीं कर बैठे… दोष केवल सिस्टम का है या फिर हम सब इसमें कॉन्ट्रिब्यूट कर रहे हैं

Anupama Sarkar

 

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