गाज़ियाबाद के बाद आज नोएडा ने भी दिल्ली के साथ अपने बॉर्डर सील कर दिए, इस आशंका के साथ कि दिल्ली में कोरोना तेज़ी से फैल रहा है और वहां से आने जाने वाले इसे नोएडा गाज़ियाबाद में भी पहुंचा देंगें… सच कहूं, खबर सुनकर झटका लगा… केंद्र में होना, महामारी के केंद्र में भयावह है… हालांकि अब केस कल थोड़े काम हुए हैं और आगे भी शायद तेज़ी से न बढ़ें… पर फिर भी डर तो लग ही रहा है…
दिल्ली देश की राजधानी है, यहां की सुख सुविधाओं और उससे भी ज़्यादा आगे बढ़ने के मौकों के बारे में, लगभग सभी जानते हैं, मानते हैं… नेशनल ही नहीं, एंबेसी और इंटरनेशनल कॉन्टैक्ट्स भी यहीं बनने और भुनाने की प्रबल संभावना है… कहना न होगा, यहां आने की ललक भी लोगों में कम नहीं…
पर इन सबके साथ, लगभग parallel एक ऐसा तबका है, जो गरीब है, मजबूर है, मेहनतकश है और हाशिए पर जीता है… मुख्यमंत्री ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में इंगित किया कि अब दिल्ली में 1 करोड़ लोगों को फ्री फूड दिया जाएगा, आबादी है 2 करोड़… तो सुनकर एक झटका और लगा… आधी आबादी अचानक ही आश्रित होने को मजबूर हो गई… आख़िर एक शहर अपनी आधी आबादी को कैसे और कब तक यूं चला पाएगा!
सुनने में ये आंकड़ा जितना हैरतअंगेज लग रहा है, उतना ही व्यथित भी करता है… साफ़ हो चला है कि दिल्ली में ऑर्गनाइज्ड सेक्टर की भारी कमी है… ज़मीं के हर कोने पर रहते लोग, शायद अब तक चींटियों से लुके छिपे थे, तितर बितर… पर कोरोना के चलते एक ही जगह पर देर तक रहने से दिखने लगे, काउंट किए जाने लगे… शायद इस वक़्त आबादी ही 2 करोड़ से कहीं ज़्यादा हो, आख़िर लॉक डाउन के चलते, जो जहां है, वहीं तो फंस गया… इतनी बड़ी जनसंख्या को, महामारी के ठीक केंद्र में, रखना और बचा ले जाना, धीरे धीरे और मुश्किल होता चलेगा… नेगेटिव नहीं होना चाहती, पर आने वाले वक़्त की मार, अब डराने लगी है…
इन सबके बीच कुछ पॉज़िटिव बातें भी देख सुन रही हूं… शायद संकट, इच्छाशक्ति बढ़ा देता है… लगातार नए उपाय, नए तरीके, सरकार ही नहीं, अब लोकल स्तर पर अपनाए जा रहे हैं… जहां केजरीवाल ने राशन के साथ साथ, तेल, नमक, चीनी, साबुन भी अब फ्री देने का वादा किया है, वहीं हर विधायक और सांसद को फूड कूपन भी दिए कि जिनके पास कोई प्रूफ नहीं, उन्हें बांट दिए जाएं… गुरुद्वारों के लंगर तो चर्चा में हैं ही, कल परसों किसी मन्दिर की भी बात सुनी थी… एनजीओ अपना काम कर रही हैं, और RWAs अपना…
पर इन सबके बावजूद अब लगने लगा है कि दिल्ली को यूं ही अव्यवस्थित नहीं छोड़ा जा सकता… छोटे दुकानदार, दिल्ली की अर्थव्यवस्था और material सप्लाई का एक अभिन्न अंग रहे हैं… इन पर मार बहुत जबरदस्त पड़ी है… पिछले कुछ सालों में malls और ऑनलाइन ऐप्स के चलते, इनकी संख्या में भारी गिरावट आई… ये बात मुझे लॉक डाउन में नज़र अाई क्यूंकि अब इनकी ज़रूरत पड़ी… अब तक तो बड़े आराम से मॉल और अमेज़न के चलते, ज़िंदगी बीत रही थी… पर जैसे ही इन पर ताले लगे, अचानक से ज़िंदगी थमने लगी… लोकल दुकानदार, जो एक समय में जाने कितने ही थे, अब गिने चुने ही बचे… उनकी कैपेबिलिटी से कहीं ज़्यादा होने लगी है डिमांड… घर के छोटे मोटे सामान लेने के लिए भी अब लाइन लगने लगी है…
शायद दिल्ली का ढांचा ही कुछ अलग है… न तो कस्बों जैसा और न ही मॉडर्न टाउनशिप सरीखा… यहां बहुत सारी कैटेगरीज एक साथ सर्वाइव करती हैं… रोज़ खाने कमाने से लेकर, कॉल सेंटर, ऑफिस, कंपनीज़ में काम करने वालों से लेकर कूरियर और डिलीवरी ब्वॉयस तक, इस वक़्त सब एक ही मार झेल रहे हैं… अचानक से सब ठप्प होते जाना, घर में बैठे बैठे बाकी बचे पैसों का हिसाब लगाते हुए, महीने का जुगाड़ बिठाना…
इन्हें जब देख समझ लेती हूं, तो अचानक से आधी आबादी का आश्रित हो जाना, समझ में आने लगता है… कोरोना की मार, फ़िलहाल बीमार और उनके परिजन भुगत रहे हैं, बहुत जल्द ही कोरोना जाए या न जाए, बाक़ी सब भी भुगतने को मजबूर हो जायेंगें… दिल्ली का उजड़ना, बसना इतिहास में बहुत पढ़ा सुना, अब आंखों के सामने घटित होते देखना, कष्टकारी है… हवाई, रेल सेवाओं के बहाल होते ही, यहां क्या मंज़र होगा, सोचकर डर लगता है… फ़िलहाल तो बस यही कि इस महामारी की चपेट से निकलने के बाद भी, पुरानी रफ़्तार पकड़ने में दिल्ली को अभी बहुत देर लगेगी… अनुपमा सरकार
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