Hindi Poetry

देह

प्रकृति बन पौरुष सहर्ष स्वीकारती तुम
सभ्यता के उत्थान में योगदान देती तुम
स्वयं से पहले, परिवार, समाज को पूजती तुम
सदियों से बर्बरता झेल, कोमल ह्रदय सहेजती तुम

कुछ न समझा तुमने
जानते बूझते आंखें मूंदे रही
तुम्हें आभास भी न हुआ
हर जगह, हर समय तुम केवल देह ही थी

चुटकी काटते, बगल दबाते, पत्थर मारते
पिता, भाई, मित्र, प्रेमी, पति, ठेकेदार बन, रौब जमाते
गालियों से लेकर बवालियों तक
पहली किलकारी से आखिरी चींख तक
छल, बल, वेदी, चिता, प्रेम, ईर्ष्या, मान की कसौटी पर
तुम्हें नोचते, खसोटते, बहलाते, फुसलाते
खींसे निपोर, तुम्हारी सहृदयता का मखौल उड़ाते

तुम्हारी चीत्कार सुन कलेजा नहीं फटता इनका
तुम्हारे आंसू देख, इनका स्नेह नहीं उमड़ता
तुम नहीं हो इंसान इनके लिए, कोई संवेदना बाकी नहीं

तुम जान भी न पाईं!
जंगलों से लेकर महलों तक
दरअसल तुम वही हो, वहीं हो
मिट्टी की देह, जिसे मथ मथ ढाल लिया गया है
और जब चाहे, जैसे चाहे, फोड़ दिया जाता है
तुम वही हो, वहीं हो, केवल देह.. देह… देह….
Anupama Sarkar

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