Fiction / Kuch Panne

दर्पण

तुम कभी इस कदर फूट फूट कर रोए कि अंतड़ियों में बल पड़ जाएं… मुंह फाड़कर, बिन आवाज़ किए, इतनी ज़ोर से चींखे कि आत्मा के कानों में पस पड़ जाए… अपनी ही धड़कनों का धोंकनी सा धधकना महसूसा कभी.. हाथ जोड़, सर पटक, मर जाने की गुज़ारिश की कभी…

नहीं..

तो तुम क्या जानो.. होंठों की मुस्कान का आंखों की चमक में तब्दील हो जाना… जुग्नुओं को देख अपनी देह में आग लग जाना… गुलाब में कांटे छू छू उन पर मर जाना.. आंसू के कतरे और खुशी की मिठास का इक जैसे तड़पाना… और ज़मीं से कुछ फीट ऊपर, सांस लेते पुतले का, जीते जागते ताबूत में बदल जाना….

दर्पण है दुनिया.. और हम सब प्रतिबिंब.. मैं भी, तुम भी….
Anupama

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