ज़मीन से कुछ फ़ीट नीचे दफन हैं साँसें… हर कोशिश मिट्टी के ढेले मुंह में भर जाती है… नासिका साथ छोड़ चुकी.. उसके पुटों में गहरे जाले हैं… हाथों में हरकत नहीं… पाँव बेड़ियों में उलझे.. सच पूछो तो तन, मन का आवरण है केवल… जब मन ही टूट जाए तो भला मिट्टी का ये पुतला कब तक हाथ-पाँव मार खुद को जिला लेगा..
धीरे धीरे दरकती है धरती.. दलदल चारों ओर से अपनी पकड़ मज़बूत करता हुआ.. तड़पती साँसें… खौलते पानी के बुलबुलों सी बेमानी… केवल तपिश है उनमे… अस्तित्व नहीं.. आंच मद्धम होते ही पानी में डूब मरते हैं वो बुलबुले जो क्षण भर पहले इतरा रहे थे…ज़मीन से कुछ फ़ीट नीचे… ऊष्णता नहीं… सुन्न कर देने वाली ठंडक है.. हाड़ मांस जमा देने वाली सर्दी.. और हैं एक जोड़ी ऑंखें जो अब भी हार मानने को तैयार नहीं.. अपनी परिस्थिति के प्रतिकूल भिड़ जाना चाहती है समाज से, तक़दीर से…
पर आँखों के पास कोई हथियार नहीं.. न कुदाल न फावड़ा, न हाथ, न पांव, न दिल, न दिमाग… बस ढेर सारे ख़्वाब.. एक तिलस्मी दुनिया… जहां ख्याल खुद ही नींव भरते हैं… हवा की ईंटों को भाप से जमा.. दीवारें खड़ी करते हैं.. खोखली अर्थहीन कृतियां… क्योंकि उन पर कभी वास्तविकता की छत नहीं पड़ती… बारिश में भीगते, धूप में झुलसते, कोहरे में चटकते इन ख़्वाबों को वो पथरीली आँखें.. चूमती हैं.. और एक ऊंची सांस के साथ परिणित हो जाती है उस लाश में… जिसे कब का दफनाया जा चुका.. मिट्टी जिस्म पे अपना हक़ जमा चुकी… दिमाग बौरा कर, मन की किसी कन्दरा में धूनी रमाये बैठा है.. और ज़मीन से कुछ फ़ीट ऊपर जीवन अपनी तलाश कायम रखता हुआ….
Anupama
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