मैं जिज्ञासु हूं।
जानना चाहता हूं अपने होने का मतलब।
वो एक कारण जिसके लिए मैंने
इस धरती पर जन्म लिया।
उन लोगों से मिला जो मुझसे अलग थे।
उन कामों को किया जो मेरे प्रतिकूल थे
जाने अनजाने कितने ही श्रम किए,
कितनों से जी चुराया।
कितनी ही मृगतृष्णाओं के पीछे मैं भरमाया।
कितनी ही ठोकरें लगीं, कितने ही अवरोध आए।
प्रतिशोध की आग में जला कभी
विरोध की अग्नि में झुलसा भी
पर नहीं छूटा वो जिज्ञासा का आंचल
क्या हूं क्यों हूं कहां हूं का सांकल।
जिज्ञासा अभी बाकी है खुद को पहचानने की
दूसरों को बहुत पढ़ लिया अब खुद को समझने की
हां मैं जिज्ञासु हूं अनवरत सदियों से
और रहूँगा जब तक तेरी तहें न खोल दूंगा
कचोटूंगा तुम्हें, बरगलाऊंगा
न चैन से जीऊंगा न मर जाऊंगा
मैं हूं तुम्हारा मन हर पल खटकता
कुछ नया समझने की चाह में हर वक्त तुम्हें टटोलता।
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