थक गए शायद बादल भी उड़ते उड़ते
पिघल पिघल धरती पर आ रहे हैं
पानी के झीने से परदे की ओट में
शर्म से अपना मुंह छुपा रहे हैं।
धरा तो है ही स्नेहिल प्रेम भरी
नटखट बुलबुलियों को अंक में भर
नयी सरगम गा रही है
और प्रकृति की ये मदमस्त अदा
मेरे मन को लुभा रही है!
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