यात्रा का महत्व अपने कलीगस से जाना… स्कूल कॉलेज में इनके बारे में न पता था और न ही इतने massive scale पर देखा था.. पर पिछले कुछ सालों में इनका चलन खूब बढ़ा है.. इस पोस्ट में जो भी लिख रही हूं, खुले दिमाग से इस सोशल change को ऑब्जर्व करते हुए कह रही हूं..
उत्सव हमेशा से लोगों को साथ लाने का माध्यम रहे हैं… पहले राजाओं द्वारा आयोजित होते थे.. और Greek Olympics से लेकर मॉडर्न ओलंपिक तक, भोज से लेकर भंडारे तक का सफ़र तय करने में सदियां लग गईं.. धीरे धीरे हर उत्सव, हर त्योहार, हर अनुष्ठान विशिष्ट लोगों के हाथ से छूटकर आम जन तक आया है… आज भले ही हम उन बातों को इतनी लॉजिकली न समझ पाएं पर अपने आसपास नज़र दौड़ाएं तो बहुत सी चीज़ें इसी सफ़र का परिणाम लगेगी..
त्योहार ज़्यादातर अपने को सामाजिक तौर पर सबल घोषित करने का माध्यम होते हैं…. दुर्गा पूजा, गणेश विसर्जन भी धर्म की वजह से नहीं वरन इस social acceptability को लेकर ही ऊपर चढ़े थे….. जोश का सबसे बड़ा कारण था, बड़े उत्सव करने की ताकत का, ज़मीदारों राजाओं से छूटकर, आम इंसान के हाथ में आ जाना…. फिलहाल छठ पूजन उसी शुरुआती दौर में है, जब Bengali Activists दुर्गा पूजा में बढ़चढ़ कर भाग लेते थे या लोकमान्य तिलक हुंकार लगाकर, सार्वजनिक गणेश विसर्जन की महिमा बतलाते थे… समय का चक्र बहुत धीरे धीरे घूमता है… पुराने उत्सवों के आधार पर समझना कठिन, पर ये बदलाव जो पिछले 100 सालों में ही हुए, शायद बेहतर तरीके से इस पोपुलैरटी का कारण स्पष्ट कर पाएं… फिलहाल तो सूर्य/प्रकृति को सेलिब्रेट करते इस त्योहार को हम निष्पक्ष तौर पर मना ही सकते हैं, आगे रब राखा!
Anupama Sarkar
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