1986, रूस का एक शहर, चर्नोबिल, न्यूक्लियर रिएक्टर में विस्फोट.. रंग बिरंगी लपटें.. ब्रिज के दूसरी ओर खड़े होकर, चमकती राख का लुत्फ़ उठाते लोग.. बिना ये जाने बूझे कि रंग रेडिएशन की वजह से है.. वो रेडिएशन जो इतना घातक है कि दो ही दिन में उनकी चमड़ी पिघलाकर, नसों से खून बाहर फिंकवा देगा.. जाने कितने ही लोग घायल हुए, कितने ही मर गए, आग से नहीं, धुएं से नहीं, अपनी और प्रशासन की बेवकूफी से!
इतने बड़े हादसे के होने पर भी न्यूक्लियर रिएक्टर हेड का लापरवाह दंभ भरा ऐटिट्यूड, ब्यूरोक्रेट्स और पॉलिटिशियंस का इस घटना को हल्के में लेना.. सिर्फ अपनी साख बचाने के आतुर लोगों का, आंखों देखी हकीकत को पहचान ने से इंकार करना..
जानते हैं, चेर्नोबिल हादसे को 33 साल बीत चुके, पर आज भी ये सिरीज़ देखते हुए, मैं रिलेट कर पा रही हूं.. हमारे देश और समाज में होने वाली हर छोटी बड़ी घटना में बिल्कुल यही लापरवाह अंदाज़ नज़र आता है.. सूरत के जलते बच्चे हों, रावण दहन में रेल से कटते लोग हों या दिल्ली के दम घोंटू वातावरण के कारण और विक्टिम बनने वाले लोग हों, सब घूम रहा है नज़रों के सामने.. जबकि मांस के लोथड़ों में तब्दील होते लोग टीवी पर देखती हुई, अचकचा रही हूं! अफसोस Chernobyl सिर्फ एक देश नहीं, एक शहर नहीं, हर जगह की कहानी है.. एक दुखद सच.. अनुपमा सरकार
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