दोपहर के दो बजे, थके मांदे परिंदे पेड़ों की ऊंची डालियाँ छोड़, नन्ही झाड़ियों में छाँव तलाश रहे हैं… आम के पेड़ पर कच्चे फल अनमने से हैं… गर्मी से उनकी खट्टास का आदान प्रदान जारी है… बोझिल पत्ते हौले हौले मंत्रजाप कर रहे हैं… घरों के दरवाज़े खिड़कियां असहनीय वेदना से मूक बधिर हो चले… उनकी खड़खड़ाहट बादलों की गड़गड़ाहट की प्रतीक्षा में है… रौद्र रूप धारण किये सूर्यदेव उनकी विनती को मखौल में उड़ा देते हैं… धूल प्रतिशोध लेने सर पर चढ़ आती है..आकाश और धरती में घमासान युद्ध छिड़ा है.. कदाचित जीवन चक्र का कठिनतम अध्याय इस युद्धभूमि में ही सीखा जा सकता है.. परन्तु ये नीरस मन अभिशापित जीवन और काल्पनिक रोमांच से कहीं दूर खिन्न बैठा है… इसकी वक्र चाल क्रूर ग्रहों से कम कहाँ…
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