Fiction

चाह, अध्याय 1

एक छोटी सी कहानी लिखनी शुरु की है, देखिए कहां तक जाती है 🙂 एक आम आदमी के अंदर के घटियापन को बाहर लाती ये कहानी, आपको भी किसी न किसी का ध्यान तो दिलाएगी.. अगर आपको पसंद आए और कुछ कहना चाहें तो बताइएगा ज़रूर.. आपके सुझाव मेरे लिए बहुमूल्य हैं.. पेश है पहला अध्याय

शब्दों को तोड़ने मरोड़ने की कला आती थी उसे। कभी यूं ही बुरे वक़्त को झेलने के लिए, कलम काग़ज़ पर दौड़ाई थी, बस साथ चिपक गई। पर विनय का ये कौशल उसके घरवालों को मालूम न था। उनके लिए तो विनय धीर, गम्भीर, कम बोलने वाला, बिज़नेस में ध्यान देने वाला 45 साल का वो व्यक्ति था, जिसके पास एक अदद बीवी, बेटा बेटी, दोमंजिला घर और घर के बाहर गाड़ी थी। आम से शहर में जीने के लिए इस से ज़्यादा चाहिए भी क्या!

अरे नहीं, यहीं तो गलत हैं आप। इंसानी फितरत कि जितना हो, पूरा नहीं पड़ता। विनय को भी पूजा से मिलता देह सुख अधूरा ही लगता था। रात के अंधेरे में पत्नी धर्म निभाकर दूसरी करवट लेटी पूजा, उसे ज़रा अच्छी न लगती। पलट जाता, लेटे लेटे ही मोबाइल में कुछ न कुछ ढूंढने लगता। नहीं जानता था कि क्या चाहिए पर इंटरनेट के होते कमी भी क्या। स्क्रीन रोल करते करते सारी रात बिताई जा सकती थी। खूबसूरत चेहरे, अनोखे दृश्य आम थे। पर विनय की भूख इनसे न मिटती। उसे कुछ और चाहिए था, कुछ ऐसा जो उसे प्रेमी होने का अहसास दिलाए, सिर्फ दैहिक नहीं, मानसिक भी। पूजा के साथ होने पर भी, जिसके नाम और शक्ल को कल्पना में वो चूम सकता था, बाहों में बाहें डाल बाग में घूमने का फिल्मी सीन इमेजिन कर सकता था।

ये बातें विनय के दिमाग में घर करने लगीं थीं। उसकी उत्कंठा बढ़ती चली जाती थी, उत्सुक था वो कुछ नया, कुछ रिस्की करने के लिए। पर उसे अपनी इज़्ज़त से समझौता मंज़ूर न था। समाज में उसे बेदाग जीवन जीना था, पर किसी औरत की ज़िन्दगी का अहम हिस्सा भी बनना था.. अनुपमा सरकार

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