लेखनी
कभी कभी लिखना एक बंदिश सी होती है। जैसे सब बनावट हो कोई खलल है जिसे जी तोड़ पेपर पर उतारने की कोशिश की जा रही है। पर कोई रंग उभर नहीं रहा। कलाकृति को गढ़ने के लिए मूर्तिकार लगातार पत्थर पर वार पे वार किये जा रहा है पर […]
कभी कभी लिखना एक बंदिश सी होती है। जैसे सब बनावट हो कोई खलल है जिसे जी तोड़ पेपर पर उतारने की कोशिश की जा रही है। पर कोई रंग उभर नहीं रहा। कलाकृति को गढ़ने के लिए मूर्तिकार लगातार पत्थर पर वार पे वार किये जा रहा है पर […]
आज कलम हाथ में आई तो लगा जैसे विचारों का रेला बाँध तोड़ने की फिराक में सजग बैठा है। किसी पहाड़ी नदी सा पूरे उफान पर है। बिना किसी किश्ती का इंतज़ार किये बस कूद पड़ना चाहता है । बिना सोचे समझे कि खिवैया है भी कोई पार लगाने लायक […]
कहानियाँ, फलसफे, अफसाने…बचपन से ही चाव से पढ़ती रही। कुछ गुदगुदातीं, कुछ सोचने पर मज़बूर कर जातीं कि आखिर कल्पना के कौन से अथाह सागर से निकलती हैं ये या सच में असलियत ही होती हैं, बस, भाषा का तड़का लगता है। पर खुद कलम उठाई तो लगने लगा कि […]
मत रोको विचारों के प्रवाह को, शब्दों की धार को, नदी के बहाव को। रूकते ही आक्रामक हो जाते हैं। सब बंधन तोड़ रिसावों से बहने लगते हैं। कुरेदने लगते हैं धरातल, खोखला हो जाता है रसातल और टूटने लगती हैं वो दीवारें, वो अवरोध जो बीच आ खड़े हुए। […]
जब अंधकार हद से गुजर जाए सवेरा नज़दीक होता है। बड़े बूढ़ों ने कहा था। कभी आज़माया नहीं। उठ ही नहीं पाई कभी इतनी सुबह। चैन की नींद सोती रही न हमेशा। पर जब रात आंखों आंखों में गुज़रने लगे तो ऐसी सुनी सुनाई बातों पे ही विश्वास करने का […]
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