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खुलकर जीना ज़रूरी है

कुछ वक़्त पहले एक मूवी आयी थी “पीकू”.. मुझे याद है मेरी एक कलीग ने मुंह बनाते हुए कहा था, “हाय हाय, बड़ी गंदी मूवी है, पैसे बेकार हो गए” .. मैं हॉल में मूवी देखने नहीं जाती, सो तब नहीं देखी थी, पर ट्रेलर देखकर, जिज्ञासा हुई थी कि एक बूढ़े पिता के कब्ज़ की तकलीफ को समझने वाली लड़की पर बनी फिल्म गंदी क्यों भला?

कुछ समय बाद मूवी टीवी पर अाई, मैंने और भाई ने साथ में देखी.. अमिताभ बच्चन का अपने bowel movement को लेकर जो ऑब्सेशन था, उसे महसूस किया.. पीकू की जगह खुद को खड़ा करके देखा और उस लड़की के इमोशन्स को भी महसूस किया.. अच्छा लगा कि किस तरह वो अपने पिता का सहारा बनती है, बुरा लगा कि किस तरह पिता के स्वार्थ के कारण, अपनी ज़िंदगी में कई कॉम्प्रोमाइज करती है.. और सबसे अच्छा लगा कि शूजित सरकार ने, मूवी बनाने के लिए एक ऐसे विषय को चुना, जिस पर हमारे समाज में केवल चुटकुले बनते हैं!

बात अवसाद की हो, या फिर शरीर के पाचन/उत्सर्जन/प्रजनन से सम्बन्धित अंगों की कोई बीमारी.. पचासों बार नोटिस कर चुकी हूं कि हम भारतीय अपने शरीर को लेकर कितने असहज हैं.. योनि, वक्ष, गुदा, शिश्न, इन अंगों को हमने इतना गुप्त बना लिया है कि इनमें होने वाले विकारों से भी नज़रें चुराते हैं.. क्यों भला? क्या इनके द्वारा किया जा रहा काम, इतना गन्दा है कि आप अपनी आंखें बन्द रखना चाहते हैं? या फिर अपने तन के इन अवयवों को लेकर, आप इतना शर्मिंदा हैं कि उन्हें खो तो सकते हैं, पर उनके बारे में अपनी जिज्ञासा व्यक्त नहीं कर सकते? कोई हैरानी नहीं कि एड्स, ब्रेस्ट कैंसर, यूटरस/सर्विक्स कैंसर, प्रोस्टेट और anal में होने वाली बीमारियों को लेकर हमारा दृष्टिकोण इतना संकीर्ण है.. नजला ज़ुकाम, बुखार, या सिरदर्द को लेकर तो हम कभी शर्मिंदा महसूस नहीं करते.. झट अपनों से और डॉक्टर से कहते हैं.. तो फिर इन बीमारियों पर परदा क्यों भला?

काले, गोरे, लंबे, नाटे, मोटे, पतले तन पर फिकरेे कसने में हमारा कोई सानी नहीं.. कपड़े कितने पहने, कैसे पहने पर टीका टिप्पणी करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है.. तो वहीं दूसरी ओर फैशन और एक अदद प्रेमी/पति पाने के लिए लड़कियों का आर्टिफिशियल बोलने से लेकर, मेकअप पोतने और ज़बरदस्ती के परिधान पहनने तक, हर बात मान्य है…

दोहरी मानसिकता के जो ठहरे हम.. जितने ज्यादा सभ्य, हाई स्टेटस और अमीर होने का दंभ, दरअसल अंदर से उतने ही ज़्यादा अपने शरीर को लेकर असहज और शंकित.. कोई हैरानी नहीं कि यहां बीमारियों का इलाज, आज भी चुपके चुपके करवाया जाता है.. परिवार के साथ बैठकर बॉडी फंक्शन्स को डिस्कस नहीं किया जाता.. शरीर से निकलने वाला मल मूत्र हो या वायु, दुग्ध और स्राव, इन सबकी अपनी अपनी महत्ता है, ये समझने में हम नितांत असफल रहे हैं!

शायद हम ये बात स्वीकार नहीं पाते कि इस शरीर का प्रयोजन, सेक्स और बच्चे पैदा करना ही नहीं है.. ये एक मशीन है, जिसका हर कलपुर्जा ज़रूरी है.. बराबर कसरत और ध्यान मांगता है.. कहीं किसी भी जगह अाई कोई भी खराबी, शर्मिंदगी नहीं, बल्कि तनाव, वातावरण, परिस्थितयों और खानपान का असर है.. इन्हें किसी भी तरह छुपाने या इन वजहों से शर्मिंदा होने या खुद को और दूसरों को हेय समझने की ज़रूरत नहीं…

तन दिया ही इसलिए गया है कि आप अपने मन की कर पाएं, जो जीवन आपको मिला है, उसका सही उपयोग कर पाएं.. इसलिए जीवन के स्वस्थ आधार के लिए इसके बारे में सचेत रहना बहुत जरूरी है.. और शरीर के किसी भी अंग में होने वाले विकार को अपने परिवार और चिकित्सक से खुलकर डिस्कस करना बेहद ज़रूरी..

#breast #cancer #awareness को लेकर एफबी पर चर्चा है.. पहले लगा, अवॉयड करूं.. शायद फिर से कोई बाजारवाद का उपकरण है.. कभी हाथ में sanitary नैपकिन तो कभी बिना मेकअप की सेल्फी या फिर निर्वस्त्र औरत को मैगज़ीन के कवर पर छापकर, ब्रेस्ट कैंसर या मां का दूध कितना ज़रूरी कहने की कोशिश, मुझे हमेशा इरिटेट करते रहे ये तरीके.. पर फिर सोचा, नहीं, ये वक़्त है कुछ कहने का, सिर्फ तस्वीर से कुछ हो न हो, लिखने कहने से होगा, सो ये लंबी पोस्ट लिख रही हूं..

ब्रेस्ट कैंसर, एक सच्चाई है जीवन की.. अपनी कलीग को इसके होने का संशय होने भर से अवसाद में जाते देखा है मैंने.. सो मानती हूं कि awareness बेहद ज़रूरी है.. अब भी पढ़ी लिखी कामकाजी महिलाएं भी इस बीमारी को ढक छुपा कर रखना चाहती हैं, ये बात हमारे समाज की संकीर्णता का ही परिचायक है..

दिल से चाहती हूं, कि मेरे सभी मित्र, पुरुष/स्त्री इस पोस्ट को पढ़ें और समझें कि शरीर का पहला और एकमात्र प्रयोजन, जीवित होना है, स्वस्थ होना है.. हो सके, तो खुद को और अपने अपनों के मुश्किल वक़्त में उनका सहारा बनें और बचपन से ही अपने परिवार में इस तरह का माहौल बनाएं कि आपके परिवार के सदस्य, बच्चे हों, पति/पत्नी हों या माता पिता, खुलकर अपनी बात बता पाएं..

हमारे समाज में ख्यालों में खुलापन लाने की ज़रूरत है, और उसके लिए नंगापन कतई ज़रूरी नहीं.. बस समझदारी की दरकार है!
Anupama Sarkar

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