स्त्री और पुरुष के पति पत्नी होने पर भी जिस आपसी सम्मान और प्रतिष्ठा के लिए, आज तक समाज तैयार नहीं, उसे आज से 150 वर्ष पूर्व शरत चन्द्र ने अपने उपन्यास में कितनी सहजता से उकेर दिया, पढ़कर विस्मित हूं। बिराज बहू, एक ऐसा उपन्यास जिसकी नायिका जितनी स्वाभिमानी और स्पष्ट भाषी, उसका नायक उतना ही सहज, सरल और मृदु। कह सकते हैं, एक ऐसा युगल, जो प्रकाश और छाया सरीखे साथ साथ ही जी सकते हैं, अलग होकर उनके व्यक्तित्व में कहीं कुछ खो जायेगा।
कितना दुरुह रहा होगा, ऐसे पात्रों को लेकर एक उपन्यास गढ़ना, जब नारी अस्मिता और स्वाभिमान को लेकर कोई अवधारणा तक नहीं बनी थी। स्त्री विमर्श के मापदंडों से कहीं परे, एक सर्वस्व समर्पण करती पत्नी, जिसे पति की चरण धूल, स्वर्ग से बढ़कर लगती है और जिसके लिए पाप की संज्ञा इतनी विविध और जटिल कि, शायद ख़ुद के लिए हवा पानी बटोरना भी इसी श्रेणी में आता हो। बिराज बहू, एक किरदार जिसका नाम भी बहू के बिना अधूरा लगता हो। कौन और कैसे सोच सकता है कि शरत चन्द्र, ऐसी महिला को पति के विरोध में खड़ा करके, इतना सशक्त चरित्र रच डालेंगे और फिर बहुत ही नाटकीय ढंग से पल भर में ही उसके स्वाभिमान को स्व से अलग करते हुए, केवल और केवल अभिमान की मूर्ति बना डालेंगे?
जानती हूं, समझती हूं कि शरद आम घरों की औरतों के प्रिय उपन्यासकार थे। उस वक़्त इतना सेंसेशनल लिखते थे कि दांतों तले अंगुली दबाए, उनकी पाठिका उनकी नायिका में खुद को पल भर महसूस करके, शायद अपने नीरस जीवन में थोड़ा सा श्रृंगार, थोड़ा सा रौद्र, थोड़ा सा विनोद रस खोज लिया करती थीं।
पर क्या शरद केवल यही करते होते तो आज भी उनके नॉवेल इतने ही लोकप्रिय रह पाते? नहीं, दरअसल उनकी नायिकाएं, उनकी कहानियां भाती ही इसलिए कि वे मन की तहों में डूबकर लिखते थे। मनोविज्ञान के अद्भुत जानकार थे। ऊपर से बेड़ियों में बंधे बंधे भी, मानव मन जो बातें धीरे धीरे से खुद में बुदबुदाता है, वही घटनाएं, वही निर्णय, बहुत ही मुखरता और साहस से उनके किरदारों में दिख जाता। सो, जो बात आप आइने से भी न कह पाएं, उसे शब्द रूप में पाकर झूम उठना स्वाभाविक ही। और यही शरत और उनके किरदारों की सफलता।
तो कुछ ऐसी ही है बिराज बहू की कहानी। एक ज्योति की भांति धधकती हुई, जिसके लिए सौम्य पवन सरीखा नीलांबर अति अनिवार्य और वही सबसे उत्तम साथी और विरोधी। दंपती की आपसी नौंक झौंक से कहीं ऊपर उठती हुई “बिराज बहू” शरत दा का एक और उपन्यास, जिसे पढ़कर, फिर से लगा कि लंबे चौड़े लिखने से कहीं बेहतर है सधा हुआ, गहरा लिखना… कि मन की गहराई भी कोई नाप पाया है कभी… अनुपमा सरकार
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