Review

Bhumika Movie Review

जब भी लाइब्रेरी में किताबें लेने जाती, शेल्फ पर सरसरी निगाह डालती और यक ब यक किसी एक पर मन अटक जाता और फिर महसूस होता कि मैंने नहीं किताब ने मुझे ढूंढ़ लिया है… आजकल कुछ यही हाल फिल्मों का हो चला है… एक दोस्त के परामर्श पर “किनारा” देखने का मन बनाया था, पर यूट्यूब पर खोजते हुए, नज़र अटक गई श्याम बेनेगल की “भूमिका” पर..

स्मिता पाटिल की शुरुआती फिल्म, हंसा वाडकर की कहानी, अमोल पालेकर और अनन्त नाग का सहज अभिनय और बेनेगल का कसा हुआ निर्देशन… और सबसे बढ़कर एक औरत का अन्तर्द्वन्द, जो उसे एक अोर तो समाज के नियमों को ताक पर रखने के लिए उकसाता है और दूसरी तरफ, किसी भी तरह पत्नी की ट्रेडिशनल भूमिका में कैद होने को तड़पाता है…

फिल्म शुरू होती है एक गाने से, जिसमें स्मिता पाटिल भड़कीली साड़ी और नाक में नथ लिए, मेकअप की परतों में डूबी, स्टेज पर नाच रही हैं… मैंने स्मिता को अक्सर धीर गम्भीर रोल्स में, मिनिमम मेकअप के साथ ही देखा था.. सो उनका ये रूप कुछ अटपटा सा लगा.. पर दो ही मिनट बाद वे मुझे अपनी चिर परिचित मुद्रा में लौटती दिखीं..

समझ में आने लगा कि ऊषा (उर्वशी) एक एक्ट्रेस हैं, और अपने से कहीं बड़ी उम्र के आदमी की पत्नी और एक टीनएज लड़की की मां भी.. अनन्त नाग, उनके कोस्टार हैं, और शायद पूर्व प्रेमी भी.. अमोल पालेकर बने देलवी यानि कि ऊषा के पति, अनन्त (राजन) से खार खाते हैं… फिल्म के तीसरे ही सीन में ऊषा और देल्वी में लड़ाई होती है और वो सामान समेटकर, राजन के पास चली आती हैं ..

अब तक मुझे ये प्रेम त्रिकोण नज़र आ रहा था, पर जल्द ही बेनेगल ने मेरी समझ को चुनौती देते हुए, स्टोरी को 25 साल पहले दौड़ा दिया.. फिल्म रंगीन से ब्लैक एंड व्हाइट हो गई और एक 8-10 साल की बच्ची, एक मुर्गे की जान बचाने को आतुर नज़र अाई, किसी और से नहीं, बल्कि अपनी ही मां से.. अजब नज़ारा था, बच्ची का मुर्गे के प्रति लगाव बहुत गहरा, और मां का किसी भी तरह उसे छीन, मेहमानों के लिए पका देना, मार्मिक..

कन्फ्यूज़ हो रहे हैं न आप? जी, मैं भी हुई थी, पर यकीन मानिए, मुर्गे वाला सीन ही दरअसल पूरी फिल्म में रिपीट होता है, अलग अलग तरीकों से.. ऊषा बनी स्मिता सारी उम्र खुद को दूसरों से बचाने की कोशिश करती रहती हैं.. और इसी उपक्रम में हर उस इंसान से लडती हैं, जो उनसे प्यार करता है या फिर किसी तरह उनके जीवन से जुड़ा होता है… ऊषा का जन्म एक देवदासी परिवार में हुआ है, नानी जीजाबाई मशहूर संगीतकार रही हैं, पर मां शांताबाई को ये प्रथा नागवार है.. वे किसी तरह एक ब्राह्मण से विवाह कर लेती हैं और अपनी बेटी ऊषा के लिए एक इज्ज़तदार घर में शादी होने के सपने बुनती हैं..

पर उनका ब्राह्मण पति, शराब के नशे में दम तोड़ देता है और मजबूरन नानी और पड़ोसी केशव दलवी के दबाव में आकर, पेट भरने के लिए, छोटी सी ऊषा को फिल्मों की दुनिया में धकेल दिया जाता है.. समय बीतते बीतते ऊषा, उर्वशी बनकर रुपहले परदे पर छा जाती हैं.. और अनन्त नाग(राजन) जो कि एक पॉपुलर हीरो है, उनके प्रेम में पड़ जाता है.. ऊषा किसी भी तरह, फिल्मों से छुटकारा पाना चाहती हैं, और घर बसाना चाहती हैं..

इस मोड़ पर मुझे यकीन था कि वे राजन को अपना जीवनसाथी चुनेगी पर इसके ठीक उल्टी दिशा में भागते हुए वो, अपने से 20 साल बड़े केशव दलवी की बीवी बन जाती हैं… शांताबाई भरसक उसे रोकने का प्रयास करती है और मां बेटी के बीच की खाई थोड़ी और बढ़ती है.. यहां गौरतलब बात ये कि शांताबाई, जिन्हें ऊषा अपनी दुश्मन मानती है, हर वक़्त उसकी भलाई के बारे में सोचकर कठोर निर्णय लेती हैं, और ऊषा उन्हें नीचा दिखाने के लिए एक और गलत निर्णय…

फिल्म ब्लैक एंड व्हाइट की दुनिया से वर्तमान में यानी कलर फिल्मों की दुनिया में वापिस आती है.. और ऊषा, राजन के स्नेहिल प्रस्ताव को ठुकरा कर, एक होटल के कमरे में चली आती हैं…. राजन उनसे कहता है कि वो केशव से तलाक लेकर उससे शादी क्यों नहीं कर लेती.. पर ऊषा (स्मिता पाटिल) को राजन (अनन्त नाग) की दोस्ती चाहिए, प्रेम नहीं… और वो खुद को आज़ाद दिखाते हुए, होटल में ही रहने लगती हैं…

और फिर 180 डिग्री का टर्न लेते हुए, अमरीश पुरी की बिन ब्याहता बीवी बन जाती हैं.. विनायक काले की भूमिका निभाते अमरीश, हद दर्जे के पैराडॉक्स हैं.. उन्हें स्मिता के अतीत से न कोई ऐतराज़ और न ही कोई सिंपथी है.. वे सिर्फ उन्हें वर्तमान में अपनी बीवी मानते हैं, पर उस से न तो शादी करते हैं, क्योंकि उनकी दूसरी बीवी, जिसे लकवा हो रखा है, अभी तक जिंदा हैं.. और न ही वे स्मिता को अपनी हवेली से बाहर आने जाने की इजाज़त देते हैं.. कंट्रोल करके ऊषा को गुलाम बनाकर रखने की उनकी उत्कंठा और उसी के प्रति प्रेम की पराकाष्ठा समझने में ज़रा मुश्किल है… पर, हां ठोस पितृसत्तात्मक रवैये से देखें तो शायद एक नॉर्मल बर्ताव…

कुछ समय बाद ऊषा को विनायक काले का ये दोहरा रूप चुभने लगता है और वो, अपने पति केशव(अमोल पालेकर) और पुलिस की मदद से, हवेली नुमा कैद से बाहर आती हैं, फिर से होटल के कमरे में निर्वाण ढूंढ़ते हुए.. ऊषा की बेटी उससे मिलने आती है, और चहकते हुए बताती है कि वो प्रेगनेंट है.. इस पर ऊषा का का शॉक्ड होना और कहना कि चरित्र ही औरत का गहना है, और इस बात से सुकून महसूसना कि उसकी बेटी दरअसल कब की शादी कर चुकी है, फिर से एक बार ऊषा के अन्तर्द्वंद को मुखर कर देता है… फिल्म यहीं पर समाप्त हो जाती है… और ऊषा अपने पसंद के जीवन को तलाशती, हमेशा के लिए “भूमिका” में कैद..

ये फिल्म कई तहें खोलती फरोलती है… ऊषा के ज़्यादातर निर्णय, गलत और तर्कहीन प्रतीत होते हैं.. पर माईन्यूटली सोचने पर, उनके भीतर की छटपटाहट दिखाते हैं.. वे बचपन से ही उन लोगों से प्रेम करती हैं, जो उनसे किन्हीं मायनों में कमतर हैं.. बीमार शराबी पिता, बूढ़ी कमज़ोर नानी, बिना रीढ़ का केशव दलवी… जबकि अपने से ताक़तवर नसीरुद्दीन (एक डायरेक्टर, जो उनके साथ केवल दैहिक सम्बन्ध बनाने के लिए, फिलोसॉफिकल होने का ड्रामा करता है) और अमरीश पुरी (एक जमींदार, जो औरतों को केवल प्रॉपर्टी समझता है), उन्हें आइडियल पार्टनर नज़र आते हैं.. अपनी आज़ादी का दम भरने वाली ऊषा को इन्हीं के साथ सुकून मिलता है..

मनोवैज्ञानिक है ऊषा का ये झुकाव.. वे रिबेल करती हैं, सिर्फ अपनी मां और राजन के विरूद्ध, जो कि उनका भला चाहते हैं…. और कई मायनों में इंडिपेंडेंट और नॉर्मल हैं… मुझे बार बार लगा कि ऊषा अपनी हर कोशिश के बावजूद, सिर्फ और सिर्फ “भूमिका” निभाना चाहती हैं.. “आज़ाद औरत”, “आदर्श पत्नी”, “ज़िम्मेदार मां” होने की.. वे इनमें से कुछ भी जीती नहीं, बस अभिनय करती हैं और हर बार, केशव के पास लौट आती हैं, जिसे वे कंट्रोल कर सकती हैं..

इन साइकोलॉजिकल लेयर्स को बेनेगल ने बहुत ही संवेदनशील और नॉन जजमेंटल तरीके से पेश किया है.. रही बात स्मिता पाटिल की, तो उनकी ये एक फिल्म ही उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री साबित करने के लिए काफी है.. 15 से लेकर 45 साल तक की औरत की भूमिका, वे बिना पलक झपकाए बखूबी निभा गईं.. अनन्त नाग बहुत इंप्रेसिव और हैंडसम लगते हैं इस फिल्म में, हैरान हूं कि उन्हें मेनस्ट्रीम सिनेमा ने ढंग से अपनाया क्यों नहीं.. अमोल अपने रोल में फिट बैठते हैं, और आशा देशपांडे, मां के रोल में काफी सहज नज़र आती हैं…

फिल्म के अंदर फिल्म दिखाती “भूमिका” के बारे में बहुत कुछ कह चुकी हूं, पर इतना लिखने पर भी मेरा मन भरा नहीं है.. बहुत सी परतें और बातें, कहने को छूट गई लगती हैं..

बहरहाल, इतना ही कहूंगी कि क्लासिक होने की हर कसौटी पर “भूमिका” खरी उतरती है… देखिएगा
Anupama Sarkar

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