कल रात आंगन में चहलकदमी करते, अचानक नज़र उस चांद से जा मिली.. नन्हे टिमटिमाते तारों के बीचोंबीच, चमकता दमकता सहज सलोना…
पर जाने क्यों किसी कशमकश में लग रहा था… यहां वहां, गर्दन घुमाता, खुद से ही बतियाता… पल दो पल उसे देख मुस्कायी, फिर अचानक मुझे अमावस याद हो आयी.. सोचा, आज पूछ ही लूँ, यूँ घटने बढ़ने का राज़.. बोर हो जाते हो या नित नये कपड़े पहनने का लालच नहीं छोड़ पाते हो..
मेरे सवाल सुन वो हौले से मुस्काया, माथे पर ढुलक आयी एक लट को सलीके से हटाया और आंखों में आंखें डाल कहने लगा.. मेरी प्यारी, तुम्हें क्या लगता है, मैं अपनी मर्ज़ी से घटता बढ़ता हूँ… अरे ये तो जादू है तुम्हारी मुस्कान का… समंदर में जितना नमक नहीं, उतना शहद है इन लबों में.. जब जितना मधु छलके, उतना ही मैं भी करीब चला आता हूँ..
हां, तुम्हारी तनी भृकुटियाँ देख, घबराकर कभी कभी बादलों में छिप भी जाता हूँ… तुम्हारी बिंदिया की चमक मेरे मन को आंदोलित करती है… मैं भी घटता बढ़ता हूँ, उसके आकार प्रकार के साथ साथ.. उसके रंग रूप में डूबते उबरते, एक रात और यूँ ही बीत जाती है.. कनखियों से टोह लेता हूँ, तुम्हारी ज़ुल्फ़ों के लहराते सागर में एक डुबकी लगा, पश्चिम की ओर हौले से कदम बढ़ा देता हूँ..
मैं सुनती रही, गुनती रही.. लाखों तारों के संसार में अपने सलोने चाँद को चुनती रही.. और वो बांका, हाथ हिला, मन ही मन कोई मन्त्र बुदबुदाता, भोर का हाथ थामे बढ़ चला.. कल फिर मिलने का वादा है, शायद एक नये रूप में ..
Anupama
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