Review

Bareilly ki Barfi, Movie, Review

आयुष्मान खुराना होंगें पंजाबी, पर उनके यूपी वाले एक्सेंट की जितनी तारीफ की जाए, कम है.. “दम लगा के हाईशा” हो या “बरेली की बर्फी”.. बेट्टा जी, सुन्न ल्यो, हमाई तुमाई जैसे ठेठ शब्दों को ठसक से बोलते और फक्कड़ अंदाज़ में शाही ज़िंदगी का दम भरते, आयुष्मान छोटे शहर के लड़के के रोल में जान डाल देते हैं..

अमूमन फिल्म देखते हुए स्टोरी, डायलॉग्स वगैरह पर ज़्यादा ध्यान रहता है, पर जब हीरो इतना कन्विंसिंग हो तो ज़ाहिर है कि फिल्म से पहले उनकी चर्चा होगी ही..

हालांकि हाल फिलहाल में देखी बरेली की बर्फी, अपने हीरो के अलावा भी कई बातों में एकदम तरोताज़ा लगी.. फिल्म की कहानी एक नॉवेल के इर्दगिर्द घूमती है, जिसके लेखक हैं तो चिराग दुबे (आयुष्मान) पर वो छापी जाती है प्रीतम विद्रोही (राजकुमार राव) के नाम से..

कहानी कुछ यूं है कि चिराग दुबे, बरेली में प्रिटिंग प्रेस चलाता है.. और बबली नाम की लड़की से प्यार करता है… हालांकि ये प्यार उसी की तरफ से ज़्यादा है, बबली के लिए सिर्फ टाइम पास.. खैर बबली शादी करके विदा होती है और चिराग बाबू टिपिकल देवदास अंदाज़ में एक हाथ में गिलास और दूसरे हाथ में “कलम” थामे, अपने गम को आंसुओं और लफ़्ज़ों में ढाल देते हैं…..

अब चिराग बाबू ठहरे सच्चे वाले आशिक़, मर जाएंगे पर अपनी माशूक को बदनाम न होने देंगें.. हां, किताब छापने से भी परहेज़ नहीं उन्हें.. सो तलाश शुरू होती है एक ऐसे आदमी की, जिसे किताब का लेखक कहकर, और फोटो छापकर, एक सच्ची प्रेम कहानी को काल्पनिक बनाकर पेश किया जा सके..

अब दूसरों की रचना को अपनी कहने वाले तो बहुत देखे थे, पर अपनी किताब को किसी और के नाम से छापने वाला पहली बार ही देखा..

खैर किताबी नायिका तो थी बबली पर असल ज़िंदगी में बिल्कुल उसी के जैसी है बिट्टी (कृति)..

बिट्टी के पिता (पंकज त्रिपाठी) उसे बेटे से कम नहीं मानते, पर मम्मी (सीमा पहवा) के अनुसार बिट्टी में लड़कियों वाली कोई बात नहीं.. अपनी मम्मी के जजमेंटल ऐटिट्यूड और लड़के वालों के रिजेक्शन के चलते, बिट्टी मायूस हो, घर छोड़कर चल देती है.. पर रेलवे स्टेशन पर ही उसकी मुलाकात हो जाती है “बरेली की बर्फी” से और उसे पहली बार यकीन होता है कि वो जैसी है, वैसे ही उसे कोई चाह सकता है.. बिट्टी के मन में बस अब एक ही बात, लेखक से मिलने की ख़्वाहिश…

आप भी सोच रहे होंगें कि लो हो गई शुरू वही बोरिंग प्रेम कहानी.. हीरोइन और हीरो का अचानक टकराव, प्यार और फिर वही गाने शाने…

न जी न.. यहीं तो ये फिल्म हटकर है… वैसे हम लेखकों ने कभी कोई काम सीधा किया ही कब है, जो चिराग कर लेता.. तो चिराग बिट्टी के सामने खुद को लेखक स्वीकारने से मना कर देता है.. फिर होते हैं एक के बाद एक कन्फ्यूजन और नए हीरो की एंट्री… फिल्म सीधी पटरी पर चलते हुए भी कई बार ट्रैक बदलती है और यही इसकी ख़ासियत है..

लच्छेदार संवाद, तेज़ तर्रार पटकथा, सहज अभिनय और सिचुएशनल कॉमेडी, बरेली की बर्फी में दर्शक को बांधकर रखने वाला बहुत कुछ है.. और दो दो ऑफ बीट हीरो भी… राजकुमार राव वैसे तो अच्छे एक्टर हैं पर आयुष्मान के सामने उन्नीस ही बैठते हैं.. पंकज त्रिपाठी पापा के रोल में सटीक बैठे हैं, हालांकि सीमा पाहवा कभी कभी ओवरेक्टिंग करती दिख जाती हैं.. कृति टॉम बॉयिश इमेज को बखूबी जीती हैं, पर जहां ट्रेडिशनल सीन आए नहीं, कि वो पटरी से फिसलती नज़र आती हैं.. मुझे तो वो पारम्परिक परिधान में खूबसूरत भी नहीं लगीं जबकि फ्यूजन ड्रेसेज उन पर कमाल दिखती हैं.. शायद वे महानगरीय किरदार निभाएं तो कहीं बेहतर लगें…

पर फिर भी कुल मिलाकर, बरेली की बर्फी, एंटरटेनमेंट की कसौटी पर खरी उतरती हैं.. और आपको बोर होने नहीं देती..

हां, रिव्यू खत्म करने से पहले अपने लेखक साथियों से एक बात ज़रूर कहना चाहूंगी.. क्या है न कि लगातार तीन मूवीज़ “करीब करीब सिंगल”  “once again और अब “बरेली की बर्फी” में नोटिस किया कि शायर/कलाकार/लेखक को फिल्म इंडस्ट्री बहुत ही दब्बू और नियति के भरोसे जीने वाला प्रेमी दिखाने पर तुली हुई है.. अरे! प्रेमिका के लिए कोई फाइट ही नहीं मारते.. खासी निराशा हुई ये देखकर… खुद को ये कहने से रोक नहीं पा रही कि अरेंज्ड मैरिज की मार्केट में तो लेखकों को वैसे ही कोई नहीं पूछता था, अब फिल्मों में भी गच्चा खाने लगे लेखक वेखक… गिव अप इतनी आसानी से मारेंगे तो यकीन कीजिए, प्रेम प्रसंग से भी जायेंगें..…

चिराग के अंदाज़ में कहूं तो बेट्टा, फ़िल्म ही न देखना, नित नई कहानियां ही न लिखना.. ज़रा कॉलर ऊंचा करके ज़माने से पंगे भी ले लेना, वो भी ज़रूरी है  ठहरा.. हां नहीं तो..

Anupama Sarkar

 

Leave a Reply