क्रूरता का नंगा नाच देखना हो तो इंसान के सामने लालच की एक बोटी लटका दीजिए, वह सारी मानवता भूल कर, बड़े से बड़े पाप को करते हुए असीम प्रसन्नता और संतोष अनुभव करेगा। और किसी भुलावे में मत रहिएगा, यह लालच अक्सर आपसी रिश्तों पर ही सबसे ज़्यादा हावी हुआ करता है। आख़िर भाई को भाई और दोस्त को दोस्त का जानी दुश्मन बनते किसने न सुना होगा।
पर माता पिता? इस रिश्ते को हमारे समाज ने किसी अलग ही सीढ़ी पर बिठा रखा है। और क्यों न हो, आख़िर वही तो इस दुनिया में हमारे आने की वजह हैं, वही पालनहार! पर क्या सचमुच यही एक रूप है इस रिश्ते का? क्या इसमें लालच घुल जाए तो क्रूर, जघन्य, अत्याचारी, ऐसी संज्ञाएं इन पर सटीक बैठती हैं?
जी, होता है ऐसा भी! यह दुनिया है, अलग रूप, अलग रंग, अलग ही ढंग, और प्रस्तुति ऐसी कि आपकी त्वचा पर मकोड़े रेंग जाएं, दिल में घिन की उबकाई और दिमाग पर झन्नाटेदार सन्नाटा गूंज जाए!
बात कर रही हूं स्वदेश दीपक रचित कहानी “बाल भगवान” की। एक मानसिक रूप से विक्षिप्त 12 साल का लड़का, जिसे भूख इस कदर सताती है कि पेट पकड़ कर पेड़ के नीचे बैठे बैठे, छिपकली से प्रेरित होकर, मकोड़े (काले चींटे) खाने शुरु कर देता है। रतन जाट, उस ब्राह्मण के बेटे को इस तरह मांस भक्षण(!) करते देखता है, तो थप्पड़ मारने पर उतारू हो उठता है। यह बात अलग कि लड़के का बाप, पण्डित जी, मुर्गे से लेकर बीवी का गोश्त तक चबाने और शराब डकारने में किसी दम पीछे नहीं। बहुत चुभता व्यंग्य है इस कहानी में। यह तो बस अभी शुरुआत है।
कैसे यह “सिद्धड़” बाल भगवान में रूपांतरित होता है, इसे कल से आज तक दो सिटिंग में पढ़ते हुए मेरा खून खौलते हुए लाल से सफ़ेद से काला और अब रंगहीन होकर, जम चला है! आगे की कहानी नहीं बताऊंगी, पढ़ना चाहें तो कहानी, आसानी से इंटरनेट पर उपलब्ध है, ज़रूर पढ़िएगा। कमाल लिखी है, यह कहना, इसकी अवहेलना करना होगा। थोड़ी लम्बी ज़रूर लगी, कांट छांट की गुंजाइश है पर इसमें छुपा दर्द और कसक जिस तरह के कटाक्ष और करारे प्रहार के साथ, असर करेगा, उसके सामने लंबाई भूल कर, सिर्फ गहरा उतरते जायेंगें।
मुझे यह कहानी फ्रांज़ काफ्का की Metamorphosis की याद दिला गई। वही तड़प, वही रिश्तों का झूठ, वही क्रूरता, वही बर्बरता फिर से मन पर मनों बोझ रख चली है। इस तरह की कहानी शायद सालों में एक ही बार लिखी और एक ही बार पढ़ी जा सकती है। उसके बाद कई महीने आपको उसकी गिरफ्त से बाहर निकलने में जो लगते हैं… अनुपमा सरकार
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