तन की पीड़ा मन को उड़ने से रोक नहीं पाती.. धरातल पर विषम पड़ते कदम, गगनचुंबी इमारतों पर इठलाते ख्यालों से ताल मिलाएं भी तो कैसे… हल्की सी मुस्कान होंठों में दबाए, गलियारे में चली आती हूं.. सब परिचित हैं यहां, ज़्यादा नहीं पर दुआ सलाम का नाता तो होना ही हुआ…
पर आज मेरी मंज़िल, कुछ कदम परे है… वो हिस्सा जहां विशिष्ट और सामान्य का अंतर, धुंधला हुआ जाता है… एक मोड़ और, और दुनिया का बदल जाना..
उमड़ता जन समूह… न, कोई रैली नहीं, कोई बाज़ार नहीं, कोई मौज मस्ती त्योहार भी नहीं.. ये केवल भीड़ है, लड़खड़ाते, बलबलाते, कुढ़ते, कुचलते, अपने ही जैसों से ज़रा हटकर, ज़रा बचकर चलने को आतुर… अमूमन बचती हूं.. भीड़ का रंग राग, आंखों की चमक और होंठों की मुस्कान को लील जाता है…
गहरी सांस लेने का प्रयास, नथुनों में दुर्गन्ध का असर छोड़ जाता है… धमनियों का कम्पन, हृदय की धड़कन और मन की चुभन, तन की पीड़ा का एहसास करवाने लगती है… दो पल पहले सजी चेहरे की मुस्कान और चमक, सकुचाते, अचकचाते, इस विशाल जनसमूह का हिस्सा बनने की मज़बूरी का अंदाज़ा होते ही, गायब हो जाती है…
शिथिल, असहाय, क्षीण, निस्तेज… ये शब्द नहीं, यथार्थ है.. मन विचलित है.. चित्रगुप्त साक्षात विद्यमान हैं… कर्मों का लेखाजोखा देख, पीड़ा वितरण करते..
मैं उचटती नज़रों से तुम्हें ढूंढ़ती हूं, मेरे देव… कहां हूं मैं और कहां हो तुम… माया, लीला, आखेट.. या केवल दुस्वप्न…
कल्पना के तार, आंदोलित हो, मेरे हाथ पकड़, मुझे तुम्हारे सामने ले जाते हैं… धरती का वो सुरक्षित कोना, जहां हम इक दूजे को देख, संतुष्ट हो जाते हैं कि जीवन शेष है अभी..
तभी धक्का लगता है, किसी के पांव का प्लास्टर मुझे छूकर गुज़रा है.. बिजली कौंध जाती है.. और मैं वर्तमान में लौट आती हूं.. अपार जनसमूह, पीड़ा का मानुष रूप धारण किए… मेरे सामने खड़ा है.. पुण्य पाप, यहीं अभी फलीभूत हुए हैं.. और मुझे याद आ रहा है वो, जो कभी हंस कर कहता था, अस्पताल की छत पर चित्रगुप्त का बहीखाता रखा है, बड़ी तेज़ी से चलता है…
Anupama
#kuchpanne
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