कोई हल्की फुल्की कॉमेडी देखने का मन था.. सोचा मॉडर्न डे गुड लुकिंग गोविन्दा.. यानि कि वरुण धवन से बेहतर आप्शन भला क्या होगा.. थोड़ी सर्च की… और अंदाज़न बदलापुर पर नज़र पड़ी.. मूवी के कुछ गाने खासे लोकप्रिय हुए थे.. सो बैठ गई देखने..
पर पहले ही सीन ने असमंजस में डाल दिया.. कुछ अलग सी शुरुआत थी.. एक आम सड़क, उस पर चलते लोग, हल्का सा ट्रैफिक.. पर फिर भी कहीं कुछ खटकता हुआ.. 5-7 मिनट तक कुछ भी नहीं हो रहा था, ये भी नहीं समझ पा रही थी कि किस करैक्टर पर कंसन्ट्रेट करूं.. कन्फ्यूज्ड सा सीन.. पर फिर अचानक एक बदलाव.. यामी गौतम की आवाज़ हौले हौले साफ़ सुनाई देने लगी.. खिली खिली सी यामी छोटे से बच्चे और फूलों का गुलदस्ता हाथ में लिए रोड क्रॉस करतीं नज़र आयीं.. अचानक सीन फिर बदला… दो गुंडे उन्हें किडनैप करते हुए…पुलिस का सायरन…धांय धांय की आवाज़ और फूलों पर बिखरा खून… पहले 10 मिनट में ही हीरोइन (कम से कम मुझे यही लगा था) ने दम तोड़ दिया..
हैरान थी, थोड़ी परेशान भी.. वरुण का सीरियस चेहरा, शोक का माहौल और एक अजीब सी बेचैनी… समझ में आया कि ये मूवी कुछ हटकर है.. न इसमें प्यार की बातें होंगीं, न ही विरह की आहें.. होगा तो बस बदला.. यकीन मानिये सवा दो घण्टे की मूवी टकटकी बांधे देखती रही.. और अब भी सकते में हूँ.. बदले की भावना इंसान का रूप किस तरह बदल देती है, बदलापुर इसका ज्वलन्त उदाहरण है…
सीधा सादा राघव अपने बीवी बच्चे की याद में कब एक सख्त दिल क़ातिल बन जाता है, मालूम ही नहीं चलता… दरअसल दुःख में हमे तोड़ देने की इतनी शक्ति है कि टूटा दिल अपनी सूरत और सीरत दोनों गंवा देता है… मूवी दिल ओ दिमाग की इस केमिस्ट्री को बखूबी दर्शाती है… जहां एक और दयाल की गर्ल फ्रेंड प्यार की खातिर लाखों रुपये ठुकराने का जज़्बा दिखाती है, वहीं कानून का रखवाला आसानी से बिकता नज़र आता है.. आप कहेंगें इसमें क्या नई बात भला, ऐसा ही तो होता है…
नहीं, हरगिज़ नहीं… 15 साल जेल में बिताने वाला इंसान, मौत के मुंह में जाने से पहले वरुण को इंसानियत का पाठ सिखा जाता है.. जबकि एक आम नरम दिल आदमी, अपना सब कुछ खोकर बदले के बवंडर में सही गलत का फर्क भूल बैठता है..
मज़ेदार बात ये कि सस्पेंस न के बराबर है मूवी में.. किरदार भी एक हद तक सपाट… विनय पाठक और यामी गौतम को तो ठीक से टैलेंट दिखाने का मौका भी नहीं मिला.. पर फिर भी कुछ है जो बांधता है इस स्टोरी से… शायद इसलिए कि इसमें कोई भी किरदार हीरो या विलेन नहीं, बल्कि सिर्फ और सिर्फ इंसान हैं, जो गलतियां करते हैं, सज़ाएं भुगतते हैं, हालातों से समझौता करते हैं, अपने अपनों के लिए सही गलत का फर्क़ भुला देते हैं… और यही जज़्बा दिल को छू जाता है..
हालांकि कहानी, निर्देशन, एक्टिंग की कसौटियों पर बदलापुर एक औसत फ़िल्म है… पर बावजूद इसके पहली बार इतने सिरियस रूप में नज़र आने वालेे वरुण धवन ने रघु के multilayered किरदार को पूरी शिद्दत से निभाया है… नवाज़ुद्दीन भी पेशेवर क्रिमिनल की भूमिका में खासे कम्फर्टएबल नज़र आते हैं …दिव्या दत्ता, हुमा कुरैशी और राधिका आप्टे, तीनों ही स्त्री प्रेम के अलग अलग बिंदुओं को छूती नज़र आतीं हैं… कुल मिलाकर मूवी प्रभावित करती है…
शायद मूवी में कथानक को थोडा और विस्तार दिया जाता, तो एक cult फिल्म बन सकती थी.. पर फिर भी ब्लैक एंड वाइट के काल्पनिक लोक से बाहर आकर एक ग्रे फ़िल्म बनाने की ये एक अच्छी कोशिश है… और ये सोचने पर मजबूर करती है कि क्या अपने साथ जाने अनजाने हुए अन्याय का बदला लेकर हम वाक़ई खुशियों को वापिस हासिल कर सकते हैं.. या फिर दुर्भावना एक दलदल है, जिसमें कीचड़ और घुटन के सिवाय और कुछ नहीं.. सवाल बहुत से.. जवाब उतने ही जितने ज़िन्दगी देती है, अपेक्षा से कुछ कम 🙂
Anupama
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