बार-बार देखो, नाम के ठीक विपरीत, एक बार देखना ही काफी ज़्यादा हो गया.. बामुश्किल पूरी फिल्म हज़म की..
ट्रेलर देखकर कॉन्सेप्ट अलग सा लगा था.. और देखने के बाद पता चला कि बस कॉन्सेप्ट ही अलग था, execution के मामले में फिल्म औंधे मुंह जा गिरी…
इस फिल्म का नायक जय (सिद्धार्थ मल्होत्रा) एक brilliant mathematician है, पर ज़िन्दगी के हिसाब-किताब में काफी कमज़ोर… उसका सपना cambridge जाकर प्रोफेसर बनना है, पर अचानक से उसकी शादी तय हो जाती है… अरेंज्ड नहीं लव और वो भी निहायती खूबसूरत और प्यार करने वाली बचपन की दोस्त कटरीना से.. पूरा परिवार शादी की मस्ती में झूमता नज़र आता है पर खुद में उलझा जय, प्यार और शादी की जिम्मेवारी निभाने को तैयार नहीं…
अचानक अजीबोगरीब तरीके से जय की याददाश्त उसे धोखा देने लगती है.. उसे नहीं याद कि उसकी शादी कब हुई, कब वो पिता बन गया और क्यों और कैसे कटरीना से उसका तलाक़ हो रहा है… ज़िन्दगी की पटरी पर लगातार भागते हुए अक्सर हम भी अपने साथ होने वाली घटनाओं को शायद यूँ ही भूलते चले जाते हैं.. बस इतनी नाटकीयता नहीं होती, और न ही जय की तरह हमे दुबारा अपनी गलतियां सुधारने का मौका ही मिलता है.. सिर्फ आज हमारे बस में है, बीता हुआ और आने वाला कल नहीं, यही फिल्म की टैगलाइन रही.. कुल मिलाकर फिर कहूंगी की सब्जेक्ट बुरा नहीं था…. पर अभिनय, निर्देशन और पटकथा हद से ज़्यादा कमज़ोर साबित हुई…
30 से 60 तक के कन्फ्यूज्ड आदमी का रोल निभाना शायद किसी भी एक्टर के लिए कड़ी चुनौती है, पर सिद्धार्थ मल्होत्रा ने पहले ही सीन में prove कर दिया कि इस फिल्म में एक डायलाग भी उनसे ठीक से बुलवा लेना डायरेक्टर के लिए ज़्यादा बड़ी चुनौती साबित होने वाला है… राम कपूर और सायानी भी कमजोर अभिनय में सिधार्थ का पूरा साथ देते नजर आये… कटरीना के लिए फिल्म में ज़्यादा गुंजाईश नहीं थी….इसलिए उनके लुक्स के अलावा कुछ भी कहना बेकार है, पर फिर भी वो सिद्धार्थ के अपोजिट प्रभावित करती हैं…. गाने बहुत स्लो और बोरिंग हैं.. काला चश्मा इकलौता पेप्पी सांग है.. हालाँकि वो क्लाइमेक्स में नंबरिंग के साथ है, तो शायद ही आपका ध्यान उस तक जाए.. हाल फिलहाल में देखी सबसे बोगस फिल्म बार-बार देखो 🙁
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