एक और सुबह.. थोड़ी धूपीली… थोड़ी भीगी… सूरज बादलों से नाराज़ है.. ताकाझांकी करती चटकीली किरणें पिघला देना चाहती हैं रुई के खारे टुकड़ों को… नमक छूटकर गिरे धरती पर… दरारें पट जाएं… जा जमे उस दीवार पर… जो बदरंग हो चली है… पार्क की रेलिंग अपने काले रंग पर गुमान करती थी कभी… अब ग्रे रंग के अनगिनत शेड्स के बीच अनमनी सी झूल रही है… कल नारंगी रंग दिया दो बेंचों को.. फीके हरे और दबे लाल के बीचोंबीच ये सन्तरी गर्वीले कितना कम्फ़र्टेबल महसूस करते हैं.. ये कोई पूछे उस भोले से जो फैंसी ड्रेस पार्टी में आम इंसान बनकर चला आया है.. लोग कभी रश्क़ करते हैं उसकी अलग सोच पर.. तो कभी खिसियाकर ओल्ड फ़ैशन्ड समझ मुंह बिदका लेते हैं.. आखिर दोनों में ज़्यादा फ़र्क़ है भी तो नहीं.. दुनिया से अलग.. नदी की उलटी धार में नाव खेना आसान रहा भी कब.. खैर इन ज़मीनी मसलों से परे धूप-छाँव का खेल अभी ज़ारी है.. शायद आसमां का दिल अब दुखने लगा है.. जल्द बरसेगा….
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