सुख दुख, पूर्ण अपूर्ण, खाली भरा… क्या हैं ये शब्द, विलोम? न, शायद तस्वीर का दूसरा रुख, जो उतना ही अलग जितना एक सा… कभी कभी किसी कहानी में यूं ही डूब जाती हूं, मानो बस मेरे ही लिए लिखी थी लेखक ने… और शायद इसका ठीक उल्टा भी एकदम सही कि बस अपने ही लिए लिखी थी लेखक ने…
आज ऐसी ही एक कहानी पढ़ी… धर्मवीर भारती की “आश्रम”… शहरी यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाला पॉलिटिकली अवेयर स्टूडेंट, अचानक आया है अपनी दीदी से मिलने एक आश्रम में… गांव से भी दूर, एक हवेली, बड़ी मांजी का रौब, हिरण, भेड़िए, तोते, बबूल, खस, खुद में समेटे है एक अजब दुनिया… यहीं हैं छोटे बड़े vanprasthi जी, विमली, जैत, गोस्वामी जी और सबसे बढ़कर चौधरी, जो डाकुओं और महात्माओं को एक साथ साधने का हुनर रखता है…
क्या करेगा कुन्नी, ऐसी जगह जहां समय चलता ही नहीं, हरियाली में उलझा सुलझा करता है… क्यों है उसकी शांता दीदी, उन पूजा के आडम्बर करने वाले लोगों के बीच… क्या सच में कुन्नी और शांता की दुनिया से बहुत अलग है ये आश्रम?
शुरुआती दौर में तो लगा कुछ ऐसा ही, मानो कोई पहेली गढ़ रहे हैं धर्मवीर भारती, जिसके छोर पर कुछ और है और कोर में कुछ और… शांता शांत नहीं, कुंदन बन्दर नहीं, गोस्वामी जी स्वामी नहीं, बिमली अभागी नहीं, और बूढ़े वानप्रस्थ जी कठोर नहीं… अंत आते आते कोई भी वैसा नहीं, जैसा लगा कि होगा… इतनी लेयर्स कि परत दर परत उतरीं तो भी लगा मानो बहुत कुछ बचा है अभी, छिलने को, छलकने को…
न, कहानी नहीं बताऊंगी… बस, इसका उद्धृत अंश पढ़िए और सोचिए कि कितना सच है ये, “मनुष्य, हर मनुष्य एक दुःख अपने चारों ओर पाल लेता है और उसमें बड़े सुख से रहने लगता है। वह दुःख को छोड़ना नहीं चाहता। ‘मैं बेचारा दुःखी हूँ’, यह एक बात उसे सौ दूसरी जिम्मेदारियों से मुक्त कर देती है। अपने दुःख को छोड़कर पूरे खुले सुखी मन से जीना बड़ी हिम्मत की बात होती है”
दुःख सचमुच ढाल सरीखा नहीं लगता हमें… उसकी आड़ में अपनी बेचैनी, गलतियां, नासमझियां, आलस, अकर्मण्यता कितना कुछ ढानप लेते हैं न!
पहली बार धर्मवीर भारती का लिखा कुछ पढ़ा है, घुमावदार लिखते हैं और परतदार भी… डूब गई पढ़ते पढ़ते… अनुपमा सरकार
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