बहुत कम होता है कि मूवी देखूं और कुछ कहने लिखने को मन न मचले.. क्या अच्छा लगा क्या बेकार, किसकी एक्टिंग अच्छी थी, स्क्रिप्ट कैसी थी, सेटिंग और किरदारों की जुगलबंदी काम की थी या नहीं, वगैरह वगैरह..
पर आज एक ऐसी फिल्म देखी, जिसके बाद मैं चुप हूं, क्योंकि स्तब्ध हूं.. इसलिए नहीं कि ऐसा होता है, नहीं पता था.. बल्कि इसलिए कि ऐसा होता है और इतनी आसानी से उसे स्वीकार कर लिया जाता है, मानो कुछ हुआ ही न हो, ये नहीं पता था..
तीन बच्चियों का गैंग रेप, क्योंकि उन्होंने अपनी मजदूरी में तीन रुपए की बढ़त की मांग की थी.. उनमें से दो को पेड़ से लटकाना, ताकि गांव वालों को सनद रहे कि ये क्रांति करने की उनकी औकात नहीं है.. पुलिस और नेता का अभियुक्त के सिर पर वरद हस्त होना.. और सबसे बड़ी और उलझी हुई बात कि बाकी सभी का, इसे सिर्फ और सिर्फ जात से जोड़कर देखना और ये स्वीकारना कि औकात में रहना ज़रूरी है.. क्या सचमुच ये आज की कहानी है? अब की ही बात है? या अनुभव सिन्हा किसी और देश, किसी और काल में ले चले हैं हमें?
नकारना चाहती हूं इस कहानी को.. कहना चाहती हूं कि न, अब ऐसा नहीं होता.. पढ़े लिखे, शहरों में रहने वाले तो कम से कम ऐसा कुछ नहीं करते.. पर अफ़सोस, बहुत चाहकर भी ये कह नहीं पा रही हूं.. दिल और दिमाग़ दोनों कुंद हैं.. और जानती हूं कि ये सब होता है, धड़ल्ले से होता है और हम आंख मूंद कर, आगे बढ़ जाते हैं..
जाति हमारे समाज के रग रग में बसी है.. ऊंच नीच से भी कहीं ज़्यादा, हर स्तर पर कितनी ही जातियां, उपजातियां, और उनमें छोटे बड़े का भेद.. फिल्म का वो डायलॉग, “सर, मैं चमार हूं, वो पासी है.. हम उनका छुआ नहीं खाते” बतलाता है कि समस्या की जड़ें कितनी गहरी हैं.. सिर्फ चार वर्ण नहीं, हर वर्ण की अपनी ही एक माला है, जिसके मनके ताकत और पैसे के बल पर ऐंठे जाते हैं, घुमाए जाते हैं और जोड़े तोड़े जाते हैं..
आर्टिकल 15, संविधान में मौजूद होगा, समाज में कहीं नहीं है.. शायद फिल्म तो सिर्फ़ जात की बात कर रही है, पर मैं देखते देखते इस बात में भी डूब गई कि औरत तो एक अलग ही जात है.. उसको लूटना खसोटना, तो हर मर्द का शगल.. सदियों से हर बात का ठीकरा उसी के सिर तो फूटा है, और हर दुश्मनी का ख़ामियाजा उसी ने तो भुगता है..
काश! कह पाती कि परिस्थितियां अब बदल रही हैं, पर जानती हूं ये बात मैं जाति की ही तरह औरतों के लिए भी नहीं स्वीकार पाऊंगी.. अब भी समीकरण वही हैं वैसे ही हैं.. अफ़सोस चीज़ें जितनी ऊपर से बदली दिखती हैं, अंदर से उतनी ही तटस्थ हैं..
फिलहाल तो आयुष्मान खुराना और अनुभव सिन्हा की ही तरह, मैं भी केवल इसी उम्मीद में हूं, कि किसी ने इस मुद्दे को देखने और सामने लाने की शुरुआत तो की.. अभी काम तो बहुत बाकी है.. अनुपमा सरकार
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