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अम्मा, कृष्ण कांत अरोरा

कहानियों की एक विशेषता है कि वो अपने पाठक खुद ढूंढ लिया करती हैं। हमेशा से मानती अाई हूं कि हम किताबों तक नहीं, बल्कि किताबें हम तक पहुंचा करती हैं। किसी न किसी माध्यम, किसी न किसी रूप में, आहिस्ता से हमारे जीवन में प्रवेश करती हुईं।

सो, कल किंडल पर यूं ही टहलते हुए, इस किताब पर नज़र पड़ी। बड़ा ही साधारण सा शीर्षक, अम्मा, और एक आकर्षित लाल रंग का कवर, जाने क्यों मन में उतर गया और झट डाउनलोड कर बैठी। आख़िर किंडल अनलिमिटेड पर किताबें पढ़ने का यही तो मज़ा कि जिस पर नज़र टिके, उसे एक बार खोलकर तो देखना ही होता है। पर, यह किताब कुछ अलग निकली। पढ़ना शुरु किया तो थमने का मन ही न हुआ।

कृष्ण कांत अरोरा ने सिर्फ 96 पेज में, एक बहुत ही उम्दा कहानी रच डाली है। एक वृद्धा जिसे उसका बेटा इलाहाबाद के कुंभ मेले में छोड़ जाता है, कैसे कुछ ही सालों में अपने पांव पर न सिर्फ खड़ी होती है, बल्कि अपने ही जैसे दूसरे बुजुर्गों की मदद भी करने लगती है, इसका सिरा तलाशती यह किताब पठनीय लगी।

बहुत ही आम सी कहानी है, पर फिर भी खास। किसी भी उम्र में इंसान स्वाभिमान से जीने की सोच ले तो उसे हरा पाना लगभग नामुमकिन है, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है “अम्मा”

मैंने यह किताब बोलकर पढ़ी क्योंकि अक्सर अपनी मां को कहानियां इसी तरह सुनाती हूं। हम मां बेटी, एक ही किताब, एक ही कहानी को पढ़ते सुनते कब एक हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता। इसका भी अपना ही सुख। ख़ैर, बात किताब की करूं तो अच्छी है कहानी, कहीं भी रुकती या अटकती नहीं। तब भी नहीं, जब बोलकर पढ़ी जाए। यह एक तरह का लिटमस टेस्ट हुआ करता है। जब पढ़ते हुए आप बार बार अटकें तो मन कहानी में रमता नहीं। अक्सर हम जिन किताबों को बहुत पसंद करते हैं, उनका सहज प्रवाह ही हम पर जादू करता है, इस बात को आजकल अच्छे से समझनी लगी हूं। सो, इस टेस्ट में तो अम्मा अव्वल नंबर से पास हैं। भाषा सीधी सपाट है, शब्द बोलचाल के, घटनाओं में आज झलकता है और कथावस्तु साधारण होते हुए भी प्रभावी।

पर, एक बात जो मुझे बार बार कचोटती रही, वो थी वर्तनी और लिंग भेद की गलतियां। “कि” को “की” लिखते जाना बहुत ही ज़्यादा अखरा। “बहन” को “बहेन” और “स्थिति” को “स्थिती” “स्वाभिमानी” को “स्वाभीमानी” लिख दिया जाना भी बहुत अजीब लगा। ये शब्द कोई भारी भरकम या दुरुह नहीं, इनकी वर्तनी तो सही की ही जा सकती थी। इसके साथ साथ “दिलासा दी”, “पेपर दी”, भी लिंग सम्बन्धी ऐसी गलतियां हैं, जो बहुत आसानी से सुधारी जा सकती हैं।

कहानी आख़िर में थोड़ा नाटकीय मोड़ लिए समाप्त की गई है, न भी होती तो भी पढ़ने में रुचिकर थी ही, पर ऊपर लिखी इन गलतियों ने मज़ा काफ़ी किरकिरा किया। आशा करती हूं, अगर कहीं कृष्ण कांत अरोरा जी, मुझे पढ़ पा रहे हों तो एडिट करने की कोशिश करेंगें, हालांकि उन्हें जानती नहीं, पर फिर भी एक पाठक की हैसियत से कहने से ख़ुद को रोक नहीं पा रही।

कहानियां होती ही तो ऐसीं, जब जहां सुन पढ़ लो, एक रिश्ता साध लेती हैं, मन से मन का। कुछ कमियों के बावजूद प्यारी लगी “अम्मा”… अनुपमा सरकार

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