I had written this poem two years ago, however, saw this scene again today. The Amarbel had enveloped not only a tree, but had also entangled a nearby building..
आज देखा मैंने एक अनोखा दृश्य
पीला जाल सा था लिपटा पेड़ पर
पहली नज़र में लगा खूबसूरत
प्यार की बयार में पगा युगल
पर ध्यान से देखा तो समझ में आया
अमरबेल की गिरफ्त में बेर कुम्हलाया
खादपानी चट करती वो फैलती चली गई
फल-फूलों की आस घटती चली गई
और फिर रह गया बस एक भयानक मंज़र
न पेड़ का अस्तित्व बचा न बेल का आकर्षण
बस वही ठूंठ सा आदमी
शक-शुबहों की बेल खुद पर लपेटे
इंसानियत दबोचे रोता हुआ
और मुझे ख्याल आया कि ये दोनों अलग नहीं
हर इंसान में है अच्छाई और बुराई
बिल्कुल बराबरी की
जब जो हावी हुई, उसकी वही किस्मत बन गई!
Poem by Anupama
Pic by google
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