Hindi Poetry / My Published Work

अमलतास

आज देखा अजब नज़ारा
गुलमोहर भी किसी से हारा!

हुआ कुछ यूं कि हम चल रहे थे
दीवार के साथ साथ
वही निर्जीव लाल दीवार
जो अपने पीछे
जाने कितनी सुंदरता छुपाए बैठी है!

पर आज उसकी शान ही कुछ अलग थी
अमलतास के फूलों से जो ढकी थी
कोमल पत्तों से, सुनहरे।
झुकी झुकी सी डालियां मन मोह रही थीं
जैसे प्रणय निवेदन सा कर रही थीं।

मैंने भी हंस के पूछ ही डाला
क्यों री सखी इतनी देर से क्यों खिली?

सावन बरसा शिशिर तरसा
पतझड़ भी बीत गया
तुझसे मिलने की चाह में तो
बसंत भी रीझ गया
और तू जाने किस बीज में
यूं ही छुप के बैठी थी।

अब आई है बाहर जब इतनी गर्मी है
सूरज की तो कौन कहे चांद में भी न नर्मी है
अमलतास ने ली हल्की सी अंगड़ाई
मद्धम सा मुस्कुराई और बोली शरमा के
क्या करूं सखी ज्येष्ठ ही मेरा प्रेमी है!

बाहर से है कठोर पर मधुरता का धनी है
उसकी गर्मी से ही पकते आम
सांझ सुंदरता पाती है
धीमे धीमे दुपहर बीतती
सुखद रात फिर आती है।

यूं ही खिल जाती हूँ मैं भी
जब उसकी आहट आती है
जब उसकी आहट आती है।
Anupama
Published in Upasana Samay September 2014

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