अब नहीं कुरेदती मैं मन को.. आहत होना.. ज़ख्मों का रिसना.. आंसुओं का उमड़ना.. किसी छोटी सी बात पर भावुक हो जाना… झट दिल का बोझ हल्का करने को मुस्कुरा देना… हाथ बढ़ा कर कहना कि सखी संग हूँ मैं तुम्हारे.. दो चार शब्दों में उसकी व्यथा सुन लेना.. दो चार शब्दों में अपनी सहानुभूति जता देना.. अब आडंबर सा लगता है.. नहीं हल्का होता मन ऊपर से मुस्कुरा देने पर.. नहीं भरते ज़ख्म पट्टी चढ़ा देने से.. पीब मवाद बह जाना बेहतर होता है.. कुछ चोटें खुले में ही सूखतीं हैं.. किसी की छाँव में नहीं.. कुछ बातें बहकर ही अपनी मंज़िल पाती हैं.. फिर वो कागज़ हो या अँधेरा कोना.. अब नहीं कुरेदती मैं…
Anupama
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