एक छोटा सा बच्चा बंटी, शायद 9 साल का.. माता पिता एक दूजे से अलग रहते हैं.. वह ममी के साथ रहता है, उन्हीं के लिए जीता है, आखिर उसके मन में ठूंस ठूंस कर भर जो दिया गया है कि राजा बेटा वही जो मां के लिए कुछ भी कर गुज़रे, राजकुमार की तरह समुद्र पार कर जाए, उनके दुख को दूर करे, ख़ुशी का ख़्याल रखे.. ये बातें उसे रोज़ कहानियों में घोलकर पिलाई जाती हैं.. और जाने अनजाने नन्हा बालक, अपनी ममी के लिए अनुपस्थित पिता का अक्स बन जाता है..
ममी का नाम शकुन, पिता अजय.. दोनों ही अपने करियर में सुलझे हुए.. शकुन प्रिंसिपल है और अजय डिविजनल मैनेजर.. एक तरह से दोनों अपने विभाग के ज़िम्मेदार अधिकारी, सर्व समर्थ.. पर दोनों ही अपने निजी जीवन में उतने ही उलझे हुए, तुरत फुरत निर्णय लेने वाले, और कहीं न कहीं अहम के चलते, परिस्थितियों को उलट देने की गलती करते हुए..
कहना बहुत आसान है, पर शायद जीते हुए समझना बहुत मुश्किल.. यही कारण कि इन तीनों में से कोई भी अपनी धुरी पर कायम नहीं, तीनों एक दूजे से टकराते हैं, तूफान लाते हैं और फिर अपनी अपनी दुनिया में उलट पुलट जाते हैं..
जितनी आसानी से ये सब लिख रही हूं, शायद उतना ही मुश्किल रहा होगा मन्नू भंडारी के लिए, अपने किरदारों को इस दिल तोड़ने वाली कहानी में पिरोना और एक एक कर के, बंटी के जीवन से खुशी, उम्मीद और संतुलन दूर करते जाना.. आखिर ये नॉवेल, शब्दों से कहीं परे, भावनाओं के जखीरे पर जो डूबता उबरता है..
मन्नू भंडारी, हर अध्याय में बंटी के दिल की बातें, उसकी सोच, उसके सपने, उसके ख्याल, शब्द दर शब्द उकेरती चलती हैं.. बाग़वानी का शौकीन, पेंटिंग बनाता कलाकार, बिना किसी से डरे, अपने मन की बात कह देने वाला, अति संवेदनशील बच्चा, जो बिन कहे भी जानता समझता है कि आस पड़ोस वालों की नज़र में वो और उसकी ममी, एक अलग ज़िंदगी जीते हैं, बिना पापा के, घर में किसी पुरुष की उपस्थिति के बिना रहते हैं..
कहानी की शुरुआत में ही बंटी बखूबी समझता है कि उसकी ममी शकुन के पास कई चेहरे हैं.. प्रिंसिपल वाला चेहरा, ममी वाला नरम मुस्काता चेहरा, और पापा के न होने से उदास खिन्न चेहरा.. एक छोटा सा बालक किस तरह बिन कुछ कहे ही, मां के दिल का हाल जानता समझता है, ये सब पहले कुछ अध्याय में ही साफ़ होता चलता है..
पर क्या ऐसा होना नॉर्मल है? क्या एक बच्चे का अपनी मां के सुख दुख की चिंता करना, उसे खुश करने की कोशिश में समय से पहले बचपन खो देना सहज सरल है? आइडेंटिटी क्राइसिस, कॉडिपेंडेंसी, प्रॉब्लम चाइल्ड, जैसे शब्दों के इस्तेमाल के बिना भी, ये साफ़ साफ़ झलकता है, कि बंटी की ज़िंदगी अबनॉर्मल है..
उस पर शकुन के शादी के फैसले के बाद तो, बंटी सच्चाई और कल्पना में अंतर करने की क्षमता ही खो बैठता है.. पहले चैप्टर का हंसता खेलता, कहानियों किस्सों में जीने वाला बंटी, आखिरी चैप्टर में कुछ यूं दम तोड़ता है कि आपके आंसू तक नहीं निकलते.. सारे तो खर्च हो जाते हैं, उसकी हर शरारत, ध्यान खींचने के डेस्परेट अटेम्प्टस पर, और शकुन की हर हरकत, उसकी नासमझी इंगित करती हुई आगे बढ़ती चली जाती है..
शुरुआत में जब तीसरे अध्याय में, मन्नू बंटी की बजाय, शकुन की दृष्टि से कहानी सुनाती हैं, तो मुझे लगा था कि इस किताब में बाल मन और स्त्री मन, दोनों की बखिये धीरे – धीरे उधड़ेंगी, पर जल्द अहसास हुआ कि शकुन भी मन से बंटी ही है, कभी मेच्योर हो ही नहीं पाई.. उसकी अजय के प्रति कटुता, दोनों की तनाव भरी शादीशुदा ज़िंदगी, अकस्मात तलाक़ और फिर अजय और शकुन, दोनों का मीरा और डॉ जोशी से शादी कर लेना, कहीं कभी कोई भी फैसला सोच समझकर नहीं लिया गया.. बस अहम और ज़रूरतों की पुष्टि भर रहा और उसमें साथ में पिसता चला बंटी.. उसकी फूफी, पुराना घर, बाग, स्कूल, शहर सब उस से एक एक करके छीन लिया गया.. और उसके माता पिता, परिपक्व बड़ों की तरह सोचते सोचते भी बस एक दूसरे से खीज निकालते हुए, बंटी को पीछे छोड़ते चले गए..
लेखिका ने अपने वक्तव्य में ही साफ किया था कि वे यह कहानी, सिर्फ बंटी के दृष्टिकोण से लिख रही हैं, क्योंकि वही अपनी और अपनों की ज़िंदगी में सबसे गैर ज़रूरी तत्व है.. और किताब ख़तम होते होते मुझे यकीन हो चला है कि ये कहानी, किसी और एंगल से लिखी ही नहीं जा सकती थी, क्योंकि सभी किरदारों और यहां तक कि हम सब पाठकों के दिल में भी कहीं न कहीं, कभी न कभी, एक आहत बंटी छुपा है.. वह कुलबुलाता हुआ कभी आंसू के रूप में, तो कभी निराशा और कभी गुस्से के रूप में बाहर दिख ही जाता है..
सलाम मन्नू भंडारी की कलम को, जो इतनी सहजता से सोच के उफनते दरकते दरिये को, शब्दों और कहानी के फ्रेम में बांध पाईं, मैं तो अब तक केवल डूब उबर रही हूं और किताब ख़तम होने के बाद भी चुपचाप बैठी सोच रही हूं, क्या सचमुच अंत यही है.. या फिर ये केवल शुरुआत है, बंटी के भविष्य की, एक और बच्चे के वयस्क होने पर भी कसमसाते रहने की!
कहने लिखने को बहुत कुछ है, पर भाव भाग रहे हैं, सो फिलहाल इतना ही.. बस इतना कहूंगी कि ये कहानी सिर्फ तलाक़शुदा घरों की नहीं, बल्कि हमारे समाज के लगभग हर परिवार की कहानी है.. हमारे यहां बच्चों की आवाज़ को अनसुना कर देना अनकहा नियम जो ठहरा और बचपन से ही लड़के को ये कहकर शर्मिंदा करना कि क्या लड़की की तरह रोता है, एक अजब सी रिवायत!
इस किताब में बहुत परतें हैं, धीमे धीमे उतरती हैं, नज़र से खेल खेलती हुई.. पढ़ने पर केवल पढ़कर नहीं छोड़ पाएंगें, कहीं भीतर ले बैठेंगे बंटी को.. और फिर लगेगा कि शीर्षक कितना सार्थक हो आया है, बंटी ने ये चिट्ठी आपके ही नाम तो लिखी है, आपका बंटी कहकर.. अनुपमा सरकार
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