आधुनिकता
शीशे की ऊंची सी इमारत, चुस्त पोशाक पहने सजग पहरेदार, प्रवेश करने से पहले पहचान पत्र की चैकिंग, यहाँ तक कि सामान की जांच करने के लिए भी एयरपोर्ट नुमा बेल्ट। पूरी तरह बंद दरवाज़े खिड़कियाँ कि कहीं वातानुकूलित हवा बाहर न निकल जाए। ए. सी. लगा था न कमरों में।
सरकारी दफ्तर भी आधुनिकता की सड़क पर भागने लगे हैं अब। सालों बाद घर से निकलने के बाद मास्टर साहब के लिए सुखद अनुभूति थी ये।
हां, भई उनके ज़माने में तो ये सुख सुविधाएं केवल बड़े अफसरों के लिए ही सुरक्षित थीं। और अब देखो ज़रा, हर मेज़ पर एक कम्प्यूटर मोटी सी स्क्रीन के साथ जमा पड़ा है। पहले बस एक बड़ा सा मेज़ हुआ करता था। अपनी कुर्सी पर झुककर बैठा क्लर्क मुंशी नुमा अंदाज़ में लिखापढ़ी करता रहता। कम से कम कलम पकड़ने का अंदाज़ तो यही बयां करता था। हालांकि मास्टर जी का काम एक बार में पूरा हुआ नहीं कभी। चाहे सालाना वेतन वृद्धि हो, जी. पी. एफ. से पैसे निकालने हो या कोई स्थानान्तरण की अर्जी, चार चक्कर तो लग ही जाते थे। सेवानिवृत्ति के समय हुई भागदौड़ के बारे में सोचकर तो मास्टर जी आज भी घबरा जाते हैं।
यही कारण था कि अपनी रिविजन की फाईल के स्टेट्स के बारे में कई दिनों से पता करने से बच रहे थे। पर आज श्रीमती जी ज़िद पकड़े बैठी थीं। पे कमीशन की रिपोर्ट आए साल होने को था। सामने वाले वर्मा जी कब के पैसे लेकर हजम भी कर चुके और एक हैं मास्टर जी, सारी उम्र गुज़ार दी बच्चों को पाठ पढ़ाने में, पर खुद जीवन की पढ़ाई में निरे बुद्धू ही रह गए। क्या फायदा ऐसे बुद्धिजीवियों का, जो अपनी ही मदद न कर पाएं।
शूल से चुभे थे मास्साब को धर्मपत्नी के ये कठोर शब्द। अब उसे समझाते भी कैसे कि वर्मा जी केंद्र सरकार से रिटायर हुए थे। कम्प्यूटराइज़्ड है वहां सब कुछ। सीधे बैंक से बैठे बिठाए काम हो जाता है। हमारी राज्य सरकार सा नहीं कि हर छोटे बड़े काम के लिए चप्पल घिसते रहें।
पर ४० साल में मास्टर जी इतना तो समझ ही चुके थे कि एक बार बच्चों के कान उमेठकर अलंकारों की परिभाषा समझाई जा सकती है, श्रीमती जी की सीधी साधी भाषा में दिया हुक्म नहीं टाला जा सकता, कुछ यमराज का आवाह्न ही समझ लीजिये।
यही कारण था कि चुपचाप हेडक्वार्टर चले आए थे वो आज। पर यहां की कायापलट देख, उनके दिल में भी आशा का दीपक जल उठा था।
तेज़ कदमों से बढ़ चले वे पहली मेज़ की तरफ। अपनी समस्या बताने के लिए मुंह खोला ही था कि जवाब आया “साहब” नहीं हैं अभी, कल आना। “पर भाई साहब बात तो सुन लीजिए, एक घंटा धूप में सफर करके आया हूं।” ये सुनकर सामने वाले का चेहरा तमतमा गया “हम ही कौन से राजकीय सवारी में आए हैं। सुबह से शाम तक डयूटी बजाते हैं। ये शो शा पर मत जाइए, एक पेन तक नहीं मिलता दफ्तर में।” स्वर में तल्खी बढ़ती जा रही थी और उसका अंदाज़ बता रहा था कि भाई साहब सबसे ऊंची पोस्ट पर थे यहां। उनकी कुर्सी को सलाम किए बिना अंदर पहुंच पाना नामुमकिन।
पर मास्टर जी भी मंजे हुए खिलाड़ी थे। कई बार दस-बीस के चक्कर से ऊहापोह कर चुके थे। चुपचाप जेब से ५० का नोट निकाला और चपरासी की ओर बढ़ा दिया। वो खिसियाता हुआ बोला ” जी, खुले नहीं हैं मेरे पास” । फिर शौचालय की तरफ बढ़ता हुआ इशारे से बुलाने लगा। ” अंकल जी मजबूरी समझिए हमारी, सब तरफ कैमरे लगे हैं यहां। मरवाएंगे क्या” खीसे में नोट ठूंस उसने पांडे जी से मिलने की हिदायत दे डाली।
मन में मुस्कुराते मास्टर जी कमरे में चले गए। सुधीर पांडे कागज़ों के ढेर में कहीं लुके छिपे से दिखे। पहली नज़र में ही पहचान लिया उसे। यही तो था जिसने रिटायरमेंट का केस किया था। पर शायद अब सुधार आ गया हो। आसपास के वातावरण का असर तो होता ही है।
पर उसकी भावभंगिमा कुछ ठीक लग नहीं रही। खैर, हिम्मत करके अपनी परेशानी बताई। पांडे जी सिर खुजा कर बोले। समय लगेगा। फाइलें होतीं तो अभी कर देता काम, पर इस टेक्नोलॉजी ने मरवा दिया। इंटरनेट के बिना काम नहीं चलता अब और वो ठहरा सरकारी, कभी चलता है, कभी नहीं। ऊपर से ये मुआ कम्प्यूटर कभी स्विच आन नहीं होता तो कभी प्रिंटर काम नहीं करता। एक झमेला हो तो बताएं। इंजीनियर को बुलाया है। वो जब आएगा तब ही होगा काम। आप बाहर इंतज़ार करें, अंदर तो अब स्टाफ के अलावा किसी को बिठाने की इजाजत है नहीं।
सारी उम्मीदें धरी की धरी रह गई। मास्टर जी चुपचाप कमरे से बाहर रखी दो कुर्सियों में से एक पर बैठ गए। यकायक उनकी नज़र पड़ी बिजली टेलीफोन के उलझे तारों पर। इंद्रजाल सा फैला था चारों ओर। ऊपरी चमक को झुठलाता, सुख सुविधाओं की धज्जियां उड़ाता। और तभी दिखी इक छोटी सी मकड़ी, जो ए.सी. वेंट से औंधी लटकी तपातप जाला बुने जा रही थी। ख्याल आया कि सरकारी दफ्तर कितने भी चमका लो, रहेंगे अजायबघर ही, मकड़ियों के लिए स्वर्ग, फाइलों के ढेर-कम्प्यूटर के फेर में दबे क्लर्कों के लिए जेल और आम जनता के लिए सिरदर्द॥
Anupama Sarkar (published in Hans Magazine)
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