जंगल- नाम सुनते ही सरसराहट सी होती है मन में। कभी गई नहीं वहाँ, पर पेड़ पौधों का जमघट मुझे आकर्षित करता रहा हमेशा। खिलते फूलों, बिखरे पत्तों और बहते झरने का दृश्य इस शब्द के साथ जुड़ा सा ही लगता है मुझे। इसलिए आज जब मुझे मुहम्मद अहसन साहब की कविता संकलन “मेरी इक्कीस पर्यावरणीय कविताएं” पढ़ने का मौका मिला, तो उनकी जंगल संरक्षक की छवि हावी हो गई मुझ पर और उत्सुकता से ढूंढने लगी मैं वही काल्पनिक जंगल। उनका दूसरा संग्रह है ये और जैसा कि नाम से ही साफ है, इसमें २१ कविताएं हैं, सब की सब पेड़ों, जंगलों और हमारे इर्द गिर्द के पर्यावरण पर केंद्रित।
शुरूआत ही हुई निम्न पंक्तियों से, जिनमें कवि मन, धूल धक्के प्रदूषण से परे, एक खूबसूरत शहर की कल्पना करता है :
“या रब उस शहर में ले चल
जहां पेड़ों के झुरमुट हों
हवाएं साफ हों और आंखें
धुंवे से न घबराएं”
मुझे आते-जाते पेडों के घने साये में दो पल ठहरकर जिस सुकून का अहसास अक्सर होता है, लगभग वही बात कवि ने अपनी इस रचना में उकेर दी। अब लेखक तो वही अच्छा, जो पाठक के मन की बात बेहतर तरीके से कह जाए, तो बस जाने अनजाने मैं रम गई इस छोटी सी किताब के बरगद, यूकेलिप्टस, नीम में।
कविताओं में सच्चाई है, जब जैसा कवि को दिखा, सीधे-सादे शब्दों में वही कह दिया। हालांकि प्रारंभिक कविताओं में पेड़ों के गुण रूप पर ही अधिक ध्यान दिया गया, पर जैसे-जैसे संग्रह पढ़ती चली गई, कवि का प्रकृति से जुड़ाव, सतही नहीं, भावुकता के गहरे सागर में डूबता सा लगा। उनकी “नीम का पेड़”, “तन्हा दरख्त”, “जंगल के शहीद” मन को बहुत गहरी छू गईं। आगाज़ जिस ख़्वाहिश से हुआ था, अंजाम उसे परवान चढ़ाता नजर आया और अहसन साहब अंतिम कविता में व्यवस्था परिवर्तन की पैरवी में मुस्तैद दिखाई दिए।
आलोचक की दृष्टि से देखूं तो विधा और शैली दोनों में विविधता दिखी। वन प्रबंधन गीत संग्रह से हटकर लगा पर हिंदी, उर्दू और अवधी का खूबसूरत इस्तेमाल पुस्तक को स्तरीय दर्जा देता है। छंदमुक्त कविता, दोहे, गज़ल, गीत सभी विधाएं इस छोटे से संकलन में दिखाई पड़ना, खुद में एक उपलब्धि है। कहीं-कहीं टाईपो हैं, पर अहसासों में कहीं कोई कमी नहीं। ज़मीनी हकीकत से जुड़ा एक अच्छा और अलग किस्म का प्रयास!
और अंत में हर मन का शक जाहिर करती इस किताब से दो उम्दा पंक्तियाँ :
“मुमकिन है इब्तिदा से ही
पहाड़ पर दरख्त न रहे हों
पहाड़ सिर्फ पत्थरों का शहर हो”
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