Editors Desk

2016 जाते जाते

ऊबड़खाबड़ राहों पर बेतहाशा भागते-दौड़ते.. अतिसंवेदनशीलता और संवेदनहीनता के बीच गिरते-संभलते.. स्वयं से प्रेम और घृणा के सोपान तोड़ते-मरोड़ते बीता ये 2016…

2016 ने कुछ इस तरह पटका कि बिखरने, पिघलने, सिमटने के सारे अंतर फ़ना हो गये… अपने सबसे अच्छे और बुरे रूपों का साक्ष्य, एक साथ होना, आपकी सोच समझ को किस कदर झकझोर सकता है, ये अनुभव किये बिना जानना या मानना मेरे बस की बात नहीं थी… अजब सी खींचातानी, दो विपरीत दिशाओं में भगाती रही और मैं तन मन से हार चुके रोगी की तरह खुद को कोसती हुई गोलाकार में भागती रही.. टूट जाने की हद तक..

पर टूटना भी अच्छा है ?… नये सिरे से खुद को समझने का मौका मिलता है.. दरअसल जब आप बिल्कुल हार जायें, तभी खुद के सबसे करीब आ पाते हैं… जीने के लिये हिम्मत जो जुटानी होती है… आईने के सामने खड़े होकर अपनी ही उदास आँखों में आंखें डालकर, खुद को I love you कह पाना, बेहद मुश्किल है… पर है अचूक बाण औषधि… जीवन में पहली बार समझ आया है कि सिर्फ और सिर्फ आप ही, अपनी किस्मत और खुशियों के लिये ज़िम्मेवार हैं… और उसे बनाने और बिगाड़ने वाले भी आप खुद ही..

2017 में खुद को खुद से बेहतर बना पाऊँ, बस इतनी ही ख़्वाहिश…

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