दूर बजते ढोल पर थिरकना और पास में चहचहाते पंछियों को अनदेखा करना, इंसानी फितरत ही ठहरी.. अक्सर जो लोग हमसे दूर हों या हमारे सम्मान और प्रेम को अधिक तवज्जो न देते हों, हम उनकी ही नज़रों में चढ़ने का प्रयास करते रहते हैं.. शायद कोई लुकीछिपी कुंठा है मानव मन की, कि वह अक्सर उपेक्षा करने वालों से ही आशा और अपेक्षा रखता है..
हर जगह, हर मोड़ पर आप नज़र दौड़ाएं तो पाएंगें कि उन्हें ज़्यादा पूछा जाता है, जो पलटकर जवाब तक देना ज़रूरी नहीं समझते.. और जाने अनजाने आपको ठोकर मार कर थोड़ा नीचे होने का एहसास दिलाते हैं.. मुंहफट होकर कहूं तो ज़्यादातर लोग भीख का कटोरा लिए, ऐसों के आगे खड़े, अपने लिए इज़्ज़त और खुशी मांगते नज़र आते हैं..
पर क्या जीने का ये तरीका सही है.. अपने आत्म सम्मान को कुचलकर किसी और के अप्रूवल की इंतज़ार में बैठे लोग, भूल जाते हैं कि ज़िंदगी हर किसी की निजी है.. हम सब अकेले पैदा हुए हैं, रिश्तों की गरमाहट और नरमाहट कायम रखने के लिए प्रयास दो तरफा हों तभी कामयाब वरना केवल हताशा..
आप सोच रहे होंगे कि आज अचानक मैं इन रिश्तों की पेचीदगी में क्यों पड़ गई.. दरअसल ये आफ्टर इफेक्ट है “102 नॉट आउट” देखने का.. अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर की हालिया रिलीज हुई मूवी, जो 10 जुलाई को प्राइम पर प्रीमियर हुई, बस अभी अभी देखकर उठी हूं और इन सब सवालों के तानेबाने मन में महसूस रही हूं..
इस मूवी को एडवर्टाइज किया गया था एक बूढ़े 102 आदमी की सनक के आधार पर, जो अपने ही 75 वर्षीय बेटे को वृद्धाश्रम भेजना चाहते हैं, ताकि शांति से जीते हुए 116 साल जीने वाले चाइनीज़ बुज़ुर्ग का रिकॉर्ड तोड सकें.. ज़ाहिर सी बात है कि कॉन्सेप्ट नया और अजब लगा था, और फिल्म को लेकर मैं एक्साइटेड भी थी..
पर बमुश्किल आधा घंटा देखने के बाद ही समझ आ गया कि ये सिर्फ दिखावा है, यहां अमिताभ बच्चन अपनी दीर्घायु के लिए नहीं बल्कि अपने बेटे ऋषि को ज़िंदादिल बनाने के लिए ये सब ड्रामा कर रहे हैं..
ऋषि “बाबू” की भूमिका में एक ऐसे पिता के रोल को जीते नज़र आए, जो पिछले 21 वर्षों से अपने अमेरिका सैटल्ड बेटे का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं.. उनका बेटा अमोल, उनकी इकलौती संतान है, जिसे केवल पैसे और प्रॉपर्टी से प्यार है.. वह मां की बीमारी और मृत्यु की खबर सुनकर भी इंडिया लौटकर नहीं आया था पर बाबू हैं कि बस उसी के गम में घुले जा रहे हैं… खुद में संकुचित और अवसादित होते हुए.. उनके पिता अमिताभ “दत्तात्रेय” को ये बात बिल्कुल नहीं जंचती.. वे दिल खोलकर जीने में विश्वास रखते हैं और मरने से पहले, अपने बेटे को ज़िंदादिली का पाठ और रिश्तों को न ढोने की अहमियत सिखाकर जाना चाहते हैं..
सच कहूं तो ये बात मुझे अच्छी लगी थी, फिल्म थोड़ी स्लो लग रही थी, पर हृषिकेश मुखर्जी की फिल्मों की फैन रही हूं, और कहीं न कहीं, मुझे उम्मीद थी कि 102 नॉट आउट भी, लगभग उसी स्तर की मूवी होगी… जहां अशोक कुमार दब्बू अमोल पालेकर को तेज़ तर्रार नौजवान में बदलकर ही दम लेंगे..
पर अफसोस यहां शीर्षक से लेकर कहानी और निर्देशन तक सब कुछ ओवर द टॉप ही रहा.. हर बात को बढ़ा चढ़ा कर दिखाने की कोशिश मूवी को बेहद सतही और प्रभावहीन बना बैठी.. रिश्तों की कशमकश को बखूबी प्रदर्शित करने का मौका, 102 नॉट आउट ने गंवा दिया..
और यहां सबसे पहली गलती, मुझे अमिताभ और ऋषि को बाप बेटे की भूमिका में दिखाने की लगी.. 102 के न बच्चन लग पाए और न ही बूढ़े बेटे के रोल में ऋषि जम पाए.. इन दोनों एक्टर्स को भाई या दोस्त की भूमिका में रखकर फिल्माया जाता तो शायद कहानी कहीं ज़्यादा सच्ची और प्रभावी लगती..
दूसरी बात, अमिताभ बंगाली बुज़ुर्ग के रूप में फबते हैं.. उनकी पीकू में एक्टिंग और टाइमिंग ज़बरदस्त लगी थी.. और यहां भी मुझे वे बंगाल इन्फ्लुएंसड ही लगे, जबकि रोल के अनुसार वे गुजराती लगने चाहिए थे.. इसे निर्देशक उमेश शुक्ला का एक गलत निर्णय ही कहेंगे कि एक नेचुरल एक्टर से भी वे बहुत अच्छी परफॉर्मेंस नहीं निकलवा पाए..
तीसरी बात जो खटकी, वो थी 6 महीने में कायापलट करने का गोल लिए चलने वाली स्क्रिप्ट को इतनी तेज़ी से भगाना कि मानो दो चार दिन में ही सब हासिल कर लेना हो.. एक सीन में तो ऋषि को 15 दिन में फूल उगाने का चैलेंज दिया जाता है और फिर टाइमलाइन की धज्जियां उड़ाते हुए, अगले ही पल शर्त को पूरा कर दिया जाता है..
ऋषि का कायाकल्प ही मेन स्टोरी थी और इसे ही बहुत जल्दी से निबटाने की कोशिश की गई… और इस से भी खराब बात ये कि मूवी तब भी बहुत स्लो स्पीड से चलती रही.. सीधा सा कारण कि कहानी में गुंजाइश कम रही और स्क्रिप्ट चुस्त न थी.
खामियों की भरमार थी फिल्म में, वरना कॉन्सेप्ट बहुत ही अलग और विषय बेहद गहरा और शोचनीय था.. इस रिव्यू को लिखते हुए, कई बार महसूस किया कि रिश्तों की हलचल को काश, 102 नॉट आउट थोड़ा बेहतर दर्शा देती, तो ये मूवी सचमुच मील का पत्थर साबित होती.. इस तरह की मूवीज़ हमारे समय की ज़रूरत हैं.. आपने भी आसपास ऐसे कई बुजुर्गों को देखा होगा जो अपने बच्चों की एक झलक के लिए तरसते रह जाते हैं..
102 नॉट आउट ने उनकी समस्या को एक अलग ही दृष्टिकोण से देखने की हिम्मत की है.. सिक्के का दूसरा पहलू देखिए, और समझिए कि कहीं ऐसा तो नहीं कि आप ही बच्चों पर कुछ इस तरह निर्भर हो चुके हैं कि खुद की कोई कीमत ही बाकी नहीं रह गई.. और ये विश्लेषण सिर्फ माता पिता ही नहीं, बल्कि तमाम रिश्तों पति पत्नी, प्रेमी प्रेमिका, दोस्त हों या सहकर्मी, में करना ज़रूरी हो चला है.. हम अगर किसी पर भी भावनात्मक रूप से बहुत ज़्यादा निर्भर हो जाते हैं, तो वह इंसान जाने अनजाने हमारा फायदा उठाता ही है..
रिश्तों को बहुत अहम मानती हूं, पर इतना कहूंगी की उन्हें सहेजिए पर जीवन की सांस और आस मानने की भूल मत कीजिए.. आपका जीवन आपको खुद ही खुशहाल बनाना है.. और बस इसीलिए तमाम कमियों के बावजूद 102 नॉट आउट को पूरी तरह से खारिज नहीं कर रही हूं.. मन की आंखें खोलकर देखिएगा, फिल्म में बहुत कुछ नज़र आएगा, जिसे निर्देशक और पटकथा लेखक ठीक से स्क्रीन पर उतार नहीं पाए.. पीकू और मुक्ति भवन की तरह ही ये मूवी भी उन ऊंचाइयों को छूने में उतनी कामयाब नहीं हो पाई जितनी कि इस विषय में काबिलियत है… फिर भी उम्मीद बाकी है कि अब इस तरह की मूवीज़ कमर्शियल सिनेमा में भी आती रहेंगी।
Anupama Sarkar
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